इस आलेख की विषयवस्तु 2011 में बनी हॉलीवुड फिल्म "पॉलिटिक्स ऑफ़ लव" नहीं है जिसकी कहानी एक डेमोक्रेट पार्टी समर्थक और एक रिपब्लिकन पार्टी समर्थक पुरुष और स्त्री के बीच प्रेम की गुंजाइश को तलाशती महसूस होती है। मालूम हो कि भारतीय अभिनेत्री मल्लिका शेरावत ने उसमें एक अहम् किरदार निभाया था। मैं मई 2023 में मृणाल पण्डे जी के द वायर में छपे " Why We Need to Embrace a Politics of Love" नामक लेख के बारे में भी बात नहीं कर रहा जिसमें उन्होंने राहुल गाँधी द्वारा प्रधानमंत्री को संसद में गले लगाने के उपक्रम पर टिपण्णी की थी। ये विचार जो मैं यहाँ बांटना चाहता हूँ वो हमारे चारों ओर बढ़ती हिंसा और उसके मेरे और मेरे आसपास के लोगों के अंतर्मन पर लगातार पड़ने वाले असर का परिणाम है। कोई दिन ऐसा बीतता नहीं जब कोई ऐसी बात न होती हो जिससे मन में तेज़ नफरत न फूटती हो। पर क्या करें। कुछ न कर पाने की विवशता से निकला हुआ लेख है ये। एक व्यथित मन की किंकर्तव्यविमूढ़ता का अपराधबोध। मुझे यकीन है कि जो मैं लिख रहा हूँ वह कोई मौलिक विचार नहीं है। मुझे तो अम्बेडकर के प्रसिद्द लेख "अन्निहिल
फोटो फ्रीडम हाउस वेबसाइट से साभार कुछ महीने पहले मैंने वैकल्पिक मीडिया पर एक लेख लिखा था। इसमें मीडिया की मुख्यधारा से अलग गए कुछ पत्रकारों और संस्थानों के प्रयासों को रेखांकित करते हुए इन प्रयासों की समीक्षा करने की कोशिश की थी। हाल ही में NDTV के अधिग्रहण के बाद रविश कुमार के यूट्यूब चैनल पर भारी दर्शकों की भीड़ ने वैकल्पिक मीडिया की ताक़त को रेखांकित किया है। मगर इस बार मैंने कोशिश की है कि जनवादी मीडिया के डिजिटल प्रयोगों की कुछ समीक्षा की जाए जोकि ऐसे लोगों की कमान में है जिनका जन-आंदोलनों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है।जनवादी मीडिया आमतौर पर डिजिटल मीडिया के पेशेवर स्वरुप के मुक़ाबले कहीं अधिक मुश्किल में अपना काम कर रहा है। घोर संसाधनों का अभाव के बावजूद जनवादी मीडिया पूरी कोशिश करता है जन-साधारण के पक्ष में कुछ हवा बनाने की। हालाँकि आम तौर पर पाठकों तक पहुंचना जनवादी मीडिया के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है खासतौर पर जब डिजिटल युग में इतनी सारी सामग्री हमारे सब तरफ मौजूद है। जनवादी मीडिया के कई उदाहरण हैं। जैसे बहुजनवादी विमर्श को प्रोत्साहित करती "फॉरवर्ड प्रेस", वैश्वी