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Showing posts from August, 2020

माटी मानुष चून : क्या गंगा एक मानव निर्मित नदी नेटवर्क बनने वाली है ?

चित्र- अमेज़न से  "भारत में मानव निर्मित एक विशाल नदी नेटवर्क काम करता है, उसे वे लोग गंगा कहते हैं।"  स्थापित पत्रकार, लेखक, और पर्यावरणविद, अभय मिश्रा की किताब "माटी  मानुष चून" की यह आखिरी पंक्ति है। किताब गंगा के आने वाले दुर्भाग्य की एक तस्वीर खींचती है। एक भयावह तस्वीर। जो पिछले २०० सालों से हमारे हुक्मरानों के लिए हुए अनाप-शनाप फैसलों की तस्दीक करता है। ये एक महान नदी के तिल तिल मरने की कहानी हैं। वह नदी जिसे  इस देश के करोड़ों लोग अपनी माँ कहते हैं। वह नदी जो एक पूरी भाषा, एक पूरी संस्कृति की जननी है, क्या आप मान सकते हैं कि मर रही है? ये किताब उस लम्हे को बयान करने की कोशिश है कि जब गंगाजल सिर्फ गंगोत्री में बचेगा, बनारस में नहीं। बाकी जगह सिर्फ पानी होगा, गंगाजल नहीं, जिसके बारे में कहावत थी कि गंगाजल कभी सड़ता नहीं। आप कह सकते हैं कि ये कल्पना है। पर पिछले 200 सालों में गंगा पर बने बांधों ने, बैराजों ने और गंगा किनारे रहते लोगों के बहते खून के फव्वारे ने आज की वह स्थिति पैदा की है जिसमें अब ठीक होने की क्षमता न के बराबर है। हम अपने नीति निर्धारकों के झूठों क

गफाम (GAFAM) और आवाम

  गफाम ! हमारे शब्दकोष में जुड़ता ये सबसे नया शब्द है। माने गूगल, एप्पल, फेसबुक, अमेज़ॉन और माइक्रोसॉफ्ट। ये वो कंपनियां हैं, जो आज हमारे पूरे युग को परिभाषित करती हैं। आज का युग ! कत्रिम बुद्धिमत्ता (artificial intelligence ), कत्रिम यथार्थ (virtual reality) का युग! जहाँ, सारा ज्ञान गूगल बाबा के पास है, "अपनों के बीच जाने के लिए" हमें फेसबुक, व्हाट्सएप्प का सहारा चाहिए, अमेज़न, जिसे आपने कभी देखा नहीं, वो "आपकी अपनी दुकान" है, एप्पल पूरी दुनिया में धनाढ्य वर्ग का स्टेटस सिंबल है और माइक्रोसॉफ्ट के बिना दुनिया के आधे से ज्यादा कंप्यूटर आप नहीं चला सकते।  आज जब इन कंपनियों को लेकर आम चर्चा हो रही है, ख़ास तौर पर फेसबुक को लेकर हालिया विवाद को लेकर, हमें यह समझना चाहिए कि ये कंपनियां क्या बन चुकी हैं।आपको जानकारी होगी ही कि फेसबुक पर भारत में धार्मिक उन्माद फ़ैलाने वाले लोगों के  बयान को न रोकने के लिए आरोप लग रहे हैं। फेसबुक के लिए ये आरोप नए नहीं हैं। दुसरे देशों में भी ऐसे आरोप उसपर लगते रहे हैं, खास तौर पर अमेरिका में। ये आरोप हमारी ज़िन्दगियों में इन कंपनियों के दखल की

माइक्रो-फाइनेंस का काला सच

फोटो इकनोमिक टाइम्स से  हम देखेंगे। ..लाज़िम है के हम भी देखेंगे.. वो दिन के जिसका वादा है...  पिछले 73 सालों के हज़ारों दिनों में हमारे हुकुमरानों ने हमसे कई वादे किये हैं। जब सोचता हूँ उनके बारे में तो ऊपर लिखी फैज़ की नज़्म ही याद आती है।ये वादे असल में जुमले साबित हुए, जो अवाम को शांत रखने के लिए समय समय पर गढ़े जाते रहे हैं। खैर !! पिछले दो दशकों से इन्हीं हज़ारों जुमलों में से एक की बात हम आज यहाँ कर रहे हैं।  वह है "वित्तीय समावेश" (financial inclusion )। वित्तीय समावेश की पूरी कहानी का लब्बोलुआब ये है कि गरीब को वित्तीय संस्थानों से जोड़ देने से और उसे कर्ज योग्य (creditworthy) बना देने से उसकी गरीबी दूर हो सकती है। आपने जरूर सुना होगा कि हमारे देश में ३० करोड़ लोग अभी भी बैंकों की जद से बाहर हैं। यह बात ऐसे कही जाती है जैसे बस इसी एक वजह से वो अभी तक गरीबी की गिरफ्त में हैं। कहा जाता है कि ये लोग छोटे छोटे क़र्ज़ लेकर पूँजी को अपने कारोबार में लगा सकते हैं जिससे फिर वह ज़्यादा पैसा कमा सकते हैं। इसे माइक्रो-फाइनेंस कहते हैं।  90 के दशक से माइक्रो-फाइनेंस या वित्तीय समावेश के मु