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Showing posts from June, 2020

गायब होते जुगनू

फोटो इंडियन एक्सप्रेस से  आखिरी बार अपने जुगनू कब देखा था ?  अब ये न कहियेगा कि परवीन शाकिर की ग़ज़ल में देखा था।  "जुगनू को दिन के वक़्त परखने की ज़िद करें  बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए " बचपन में हमारे घरों में घुस जाते थे जुगनू। रात को बत्ती जाते ही दिखने शुरू हो जाते थे। दिप दिप उनकी रौशनी में कब वो वक़्त कट जाता था, पता  ही नहीं चलता था। मेरी उम्र के लोगों ने तो ज़रूर अपने बचपन में जुगनू देखे होंगे।  सैकड़ों, हज़ारों एक ही पेड़ पर। तब ज़िन्दगी में जुगनुओं की बड़ी जगह थी। बत्ती तो आती जाती रहती थी। पर जुगनू चमकते रहते थे। फिर कुछ लोग उन्हें देख कर कविता कहानी  लिखते थे और कुछ  बस उन्हें देखते थे। घंटों। फिर जैसे ही बत्ती आयी तो सारे बच्चे चिल्लाते थे "लाइट आ गयी... और सब घर के अंदर। कभी कभी कोई जुगनू घर के अंदर भी आ जाता था। वो उन कुछ कीड़ों में से थे  जिनसे बच्चे डरते नहीं थे। बल्कि खेलते थे।  मुझे नहीं लगता के मेरे बच्चे सहज भाव से जुगनू को कभी छू पाएंगे। उनकी उम्र के सभी बच्चे शायद जुगनुओं के झुण्ड को देखकर डर जाएं क्यूंकि उन्होंने तो ऐसा देखा ही न होगा अपने जीवन में। मेरी

89 का बचपन - मेरे बाबा

बहुत सोच  विचार के बाद अब लिखना शुरू किया हूँ अपने बचपन के बारे में। बहुत से अनुभव  संजोना अब बहुत जरूरी सा महसूस हो रहा है। शायद किसी को इस से बहुत फर्क न पड़े पर अगर एक को भी पड़ता है तो मुझे मलाल नहीं रहेगा कि  मैं उस तक पहुंचा नहीं। किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों !! मेरे बाबा ये नज़्म सुनाते रहते थे। जो पत्थर पे पानी पड़े मुत्तसिल। "मुक्कासिल?" मैं बोलता था।  और वो  बोलते थे, "उंहू, मुत्तसिल बोलो, मुत्तसिल" !! "अच्छा!!", मैं बोलता था। और फिर शुरू!! जो पत्थर पे पानी पड़े मुत्तसिल तो घिस जाए बेशुबाह पत्थर की सिल रहोगे अगर तुम युहीं मुत्तसिल तो एक दिन नतीजा भी जायेगा मिल किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों ! किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों! गर ताक़ में तुमने रख दी क़िताब तो क्या दोगे तुम इम्तिहाँ में जवाब न पढ़ने से बेहतर है पढ़ना जनाब आखिर हो जाओगे एक दिन कामयाब  किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों ! किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों ! "ये नज़्म हमने तीसरी जमात में याद करी थी। अब भी याद है !!" जब भी बाबा ये नज़्म दोहराते थे तो यह जताते जरूर थे कि उनकी य