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Showing posts from July, 2019

खोये हुए देवता

एक समय  काल ने क्या करवट बदली, पवन ने क्या दिशा बदली की पंचाचूली की पर्वत श्रेणी की गुरुस्थली में पंचनाम देवों की भाइयों की भेंट, केदार की यात्रा हुई।  पंच महादेव कौन? गोल्ल, गंगनाथ, महाबली हरु, सेमराजा और भोला।  काली कुमाऊं और पाली पछाऊं के पांच लोकदेवता, कि पड़ती संध्या, जगती भोर में जिनके नाम की पहली धूप-बाती होती है, कि पहली फूल पाती चढ़ती है, कि हम तुम्हारा नाम लेते हैं।  -मुखसरोवर के हंस से उदधृत, लेखक-शैलेश मटियानी  ऊपर लिखी पंक्तियाँ कुमाऊं के पांच लोकदेवताओं की प्रार्थना के बारे में हैं। कुमाऊं में लोक देवताओं की पूजा उनकी कथा को इस तरह कह कर किये जाने की परंपरा है। इसे जागर कहते हैं। 15 साल की उम्र से 27 साल की उम्र तक मैं लगभग पूरा समय उत्तराखंड में रहा और कुमाउनी संस्कृति को थोड़ा बहुत जानने का सौभाग्य मुझे मिला। उसमें से एक था कुमाउनी लोक देवताओं के बारे में जानना। बड़ी शक्ति थी लोक देवताओं  में। खास तौर से गोल्ल देवता में तो अपार शक्ति थी।  बड़ी मन्नतें पूरी होती थीं, उनके चितई और घोड़ाखाल के मंदिरों में। यूँ तो पूरे भारत वर्ष में ग्राम देवताओं की पर

नदी में खेलते बच्चे

कीर्ति किरण बंदरु को सधन्यवाद-मंडला में नर्मदा नदी  का दृश्य  अब मंडला के बाहर एक बाईपास बन गया है। बिछिया के लिए जाओ, तो वही लेना पड़ता है। पहले नर्मदा जी के अच्छे दर्शन होते थे बिछिया जाते वक़्त। रपटा घाट  पर पुराना पुल इस  तरह बना हैं  के आराम  से पूरी नदी दिखती है। दाहिने हाथ को सहस्त्रधारा तक और बाएं को किले तक। पर बायपास में पुल की रेलिंग इतनी ऊँची है  के बहुत थोड़े से दर्शन होते हैं  बल्कि अगर ध्यान न दो तो शायद पता ही न चले की नर्मदा जी आ गयी हैं। । आंखें भरके नहीं देख सकते अब। खैर, बात ये है के आज जब उसपर से गुजरा, तो नदी में खेलते बच्चे दिखाई दिए। जब बच्चों के बारे में लिखता हूँ तो लगता है अपने बारे में लिख रहा हूँ। कोई भी बात हो, मुझे अपने  बचपन में ले जाती है। बहुत खेले हैं हम गंगा जी में। मुझे लगता है के कई सालों तक तो हर हफ्ते जाते थे। उत्तर प्रदेश में गजरौला के पास बृजघाट है न ! वहां।  मुझे याद नहीं के मैं कभी डरा हूँगा गंगा जी में नहाते समय। एक बार जरूर तिगरी मेले में पैर फिसला था और मैंने अपने ताऊ जी का कन्धा पकड़ लिया था।गंगा के घाटों में नहाते हुए बस गंगाजल का ठं

उत्तर विकासवाद क्या है - कड़ी-1

मंडला में देशी मक्के की किस्में-कुछ दिनों में शायद बीते कल की बात बन जाएँ  कुछ समय पहले मेरे एक  दोस्त ने जोकि मेरी तरह एक गैर सरकारी संस्था में ग्रामीण विकास के लिए कार्य करता है, एक दिलचस्प किस्सा सुनाया।  उसने बताया के वह एक अजीब अनुभव से गुज़र रहा है। मेरा दोस्त बहुत समय से मंडला के एक गाँव में किसी परिवार के साथ मचान खेती पर काम कर रहा था। मचान खेती सघन खेती का एक मॉडल है जिसमें एक समय में एक जमीन के टुकड़े से कई फसलें ली जाती हैं, कुछ जमीन पर और कुछ जमीन से उठ कर मचान पर, बेलें चढ़ाकर । जिस परिवार को उसने प्रेरित किया, उसने पहले साल ज़बरदस्त मेहनत की और बड़ा मुनाफा कमाया। दूसरे साल भी परिवार के साथ वो काम करता रहा। और नतीजा फिर बढ़िया निकला।  तीसरे साल उसने सोचा के परिवार अब तो खुद ही मचान खेती कर लेगा। बरसात के आखिरी दिनों में मेरा दोस्त उस परिवार से मिलने गया। वहां जो उसने देखा, उससे वो भौंचक्का रह गया। उसने देखा की मचान खेती नदारद थी। उसकी जगह पारम्परिक खेती ले चुकी थी।  उसने घर के महिला से पूछा-  "काय दीदी, इस बार मचान नहीं लगाए ?" दीदी बोली - &qu

क्या भारत में कोई बच्ची ग्रेटा थन्बर्ग हो सकती है?

आपने ग्रेटा थन्बर्ग  का नाम सुना है? गार्जियन अखबार से साभार, no copyright infringement is intended स्वीडन की ये लड़की अभी  18 की भी पूरी नहीं हुयी है। पूरी दुनिया में मशहूर हो चुकी इस लड़की ने लाखों लोगों की भावनाओं को झकझोरा और किशोरों की एक बड़ी लड़ाई को जन्म दिया जो "स्कूल स्ट्राइक फॉर क्लाइमेट"  से जानी  जा रही है। इस आंदोलन ने यूरोप की  ग्रीन पार्टियों को वापस मुख्यधारा में ला दिया। यूरोप के कई देशों ने आंदोलन के दबाव में जलवायु परिवर्तन की  अपनी नीतियों में बड़े संशोधन किये। स्कूली बच्चों  और युवाओं का एक विश्वव्यापी आंदोलन ग्रेटा कैसे खड़ी कर पायी, इतनी कम उम्र में? ऐसी हिम्मत उसमें कहाँ से आयी? मैं कई दिनों से यही सोच रहा हूँ। 8 वर्ष की उम्र में ग्रेटा को जलवायु परिवर्तन के बारे में पता चला। और 15 वर्ष की उम्र तक उसके अंदर इस विषय को लेकर गहरी चिंता बैठ गयी। राजनीतिज्ञों की अकर्मण्यता और विशेषकर सयाने लोगों के दोगलापन उसकी बर्दाश्त के बाहर था। सबसे पहले उसने अपने माँ-बाप को मजबूर किया के वह अपनी आदतें बदलें। कई सालों तक बेटी के कठिन सवालों से जूझते रहने के बाद, ग

बढ़ती जीडीपी और सूखती नदियाँ

खबर हुयी है के देश का सकल घऱेलू  उत्पाद यानीकि जीडीपी जल्द ही 5 लाख करोड़ डॉलर पहुँच जायेगा। बड़ी ख़ुशी की बात है । इसका मतलब है हमारा देश लगभग 350 लाख करोड़ रूपए मूल्य का उत्पादन हर वर्ष करेगा। इतने शून्य लगेंगे इस संख्या में के कोई गिनते गिनते बेहोश हो जाए तो अचरज नहीं होना चाहिए।  मुझे उम्मीद है के नोटों की इस बाढ़ में मेरा भी हिस्सा लगा होगा। कुछ पैसा मैंने भी शेयर बाजार में लगा रखा है, आजकल के किसी भी आम नौकरी पेशा आदमी की तरह। मुझे उम्मीद है के मुनाफा होगा। और मुझे ये भी उम्मीद है के मेरे प्रोविडेंट फण्ड की ब्याज दर भी न घटेगी। अब ये चमत्कार कैसे होगा इस फलसफे में न पड़ें तो अच्छा है।  फिलहाल हमारी चिंता कुछ और है।  इस मुई जीडीपी के चक्कर में हमें लगता है के हमारी गंगा मैया हमसे रूठ गयीं हैं।क्या है कि पिछले सत्तर सालों में जितनी तेजी से जीडीपी बढ़ी, उतनी तेजी से गंगा मैया गायब हुयी। नर्मदा मैया तो और भी ज्यादा रुष्ट हैं। पिछले कुछ महीनों में खूब खबर छपी के  नर्मदा मैया अंतर्ध्यान हो गयी गर्मियों में। हमारे मन को चिंता हुयी के अगर जे ऐसे ही अंतर्ध्यान रहीं, तो अपने रपटा घाट व