एक समय
काल ने क्या करवट बदली, पवन ने क्या दिशा बदली की पंचाचूली की पर्वत श्रेणी की गुरुस्थली में पंचनाम देवों की भाइयों की भेंट, केदार की यात्रा हुई।
पंच महादेव कौन?
गोल्ल, गंगनाथ, महाबली हरु, सेमराजा और भोला।
काली कुमाऊं और पाली पछाऊं के पांच लोकदेवता, कि पड़ती संध्या, जगती भोर में जिनके नाम की पहली धूप-बाती होती है, कि पहली फूल पाती चढ़ती है, कि हम तुम्हारा नाम लेते हैं।
-मुखसरोवर के हंस से उदधृत, लेखक-शैलेश मटियानी
ऊपर लिखी पंक्तियाँ कुमाऊं के पांच लोकदेवताओं की प्रार्थना के बारे में हैं। कुमाऊं में लोक देवताओं की पूजा उनकी कथा को इस तरह कह कर किये जाने की परंपरा है। इसे जागर कहते हैं। 15 साल की उम्र से 27 साल की उम्र तक मैं लगभग पूरा समय उत्तराखंड में रहा और कुमाउनी संस्कृति को थोड़ा बहुत जानने का सौभाग्य मुझे मिला। उसमें से एक था कुमाउनी लोक देवताओं के बारे में जानना। बड़ी शक्ति थी लोक देवताओं में। खास तौर से गोल्ल देवता में तो अपार शक्ति थी। बड़ी मन्नतें पूरी होती थीं, उनके चितई और घोड़ाखाल के मंदिरों में।
यूँ तो पूरे भारत वर्ष में ग्राम देवताओं की परंपरा है। ग्राम देवता ही हमारे दुःख सुख में काम आते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारे सारे संस्कारों में लोकदेवताओं की जगह है। आपने बद्रीनाथ का नाम तो सुना ही होगा। पर क्या आप जानते हैं, के भगवान बद्रीनाथ के मंदिर का कपाट खोलने का अधिकार किसका है? मंदिर के पास ही एक गांव है-माना। वहां के देवता का नाम है घण्टाकरण। वह ही बद्रीनाथ जी के मंदिर का चौकीदार है। एक कहानी के अनुसार वहां का एक स्थानीय पुजारी एक पीपा शराब पीकर और एक पूरा बकरा खाकर देवता के आवेश में कपाट खोलता है। तब जाकर आपको और मुझे दर्शन होते हैं बदरीनाथ जी के। ऐसे यशस्वी हैं हमारे ग्राम देवता।
मंडला में तो हर गाँव में खेरमाई का स्थान है। कई महत्वपूर्ण कारज यहीं संपन्न किये जाते हैं। आम तौर पर किसी बड़े पुराने पेड़ के छाया में यह स्थान होता है। बढ़िया, साफ़ सुथरा, चूने से पुता, कुछ चिमटे, और कुछ भस्म बीच में पड़ी हुई, उसके पवित्र स्थान होने की घोषणा करते हुए। खेरमाई सबके काम आती है, सामुदायिक बैठकों के, पूजा पाठ के, रामधुन के और झाड़ फूंक के भी।
आपको मालूम है के मुंबई के कई इलाकों के नाम वहां के लोकदेवताओं के नाम पर ही हैं। अलबत्ता, मुंबई वाले शायद यह बात भूल चुके हैं।
हमारे समाज का पूरा तानाबाना इन ग्राम देवताओं के मत्थे था। बीमारी में, परीक्षा में, बाढ़ में, सूखे में, सांप के कांटे में, प्रेम में, दुश्मनी में, सब मामलों में यही साधते थे हमारी मन्नतों को। पर आज हम जड़हीन अमरबेल की तरह बिना अपने देवताओं के नीरस जीवन जीने को विवश हैं। अब हमारे देवता हमारे गाँव में नहीं बसते। वह हम से दूर किसी तीर्थ में डेरा डाले हैं। वह चार धाम में हैं, महाकाल में, शिरडी में, तिरुपति में हैं। अब हमारे गाँव के मंदिर में भी ये बाहर के बड़े देवता समा गए हैं। उनकी तस्वीरें घुस आयी हैं हमारे ग्राम देवता के मंदिरों में भी। हम भगवान् के आशीर्वाद की खोज में फिरते रहते हैं, सैंकड़ों किलोमीटर यात्रा करते हैं, लम्बी लाइनों में लगते हैं, हज़ारों खर्च करते हैं, यहाँ तक कि बड़े मंदिरों के लालची पंडों के निवाले भी बन जाते हैं।
हम अपने ग्राम देवताओं को भूलकर जब इन बड़े देवताओं के पास जाते हैं, तब हम और भी बहुत से रिश्ते तोड़ते हैं जिनका शायद हमें उस समय एहसास नहीं होता। ग्राम देवताओं के मान से गाँव के बुजुर्गों का मान भी जुड़ा है, बूढी अम्मा की कहानियों का मान भी जुड़ा है, जंगल के फूलों का मान भी जुड़ा है, सामाजिक बैठक का मान भी जुड़ा है, पास के पोखर का, कुएं का, रास्तों का, गौचर का, गौठान का, ऋतुओं का, नदियों का, पेड़ों का, पशुओं का मान भी ग्राम देवताओं से जुड़ा है। जब हम उनसे दूर होते हैं तो इन सब से अपने नाते को भी कमज़ोर कर देते हैं।
इन बड़े मंदिरों के वैभव के पीछे हमारी आध्यात्मिक प्यास नहीं बुझती बल्कि और भड़क जाती है। अब बड़े मंदिरों में मन इस जुगाड़ में लगा रहता है के कैसे बिना लाइन में लगे भगवान् के दर्शन किये जाएँ। प्यार से बात करना तो दूर, यहाँ मत जाओ, वहां मत जाओ, जल्दी जल्दी चलो, भीड़ मत लगाओ जैसी टोकाटाकी से भला किसका मन ध्यान में लगेगा। पूरा ध्यान तो इसी बात पर है के किसी तरह से सारा कर्मकांड हो जाए तो एक ही दिन में स्वर्ग का टिकट कट जाएगा। इतिहास में जायेंगे तो इन मंदिरों की जड़ें किसी न किसी राजा से जुडी होंगी, जिसे अपने वैभव को दिखाने के लिए या अपनी याद को बनाये रखने के लिए इन मंदिरों में पूँजी लगाने की सूझी होगी। मंदिरों और राजाओं का लगाव पुराना है और अभी भी वैसा ही है, बस राजाओं की जगह पूंजीपतियों या बड़े नेताओं ने ले ली है। पहले राजा से ग्रांट मिलती थी, अब अम्बानी, बिड़ला से मिलती है।
चूँकि इन मंदिरों से हमारा उस तरह का जुड़ाव नहीं हो सकता जिस तरह का हमारा हमारे ग्राम देवता से है, इसलिए हम अपने अहंकार और अतिरेक से इन बाहरी मंदिरों की गरिमा भी नहीं रख पाते। हमारे अधिकांश मंदिर और तीर्थस्थल, कूड़े के ढेर से पटे पड़े हैं। उन पर इतना दबाव है के आये दिन दुर्घटनाएं होती रहती हैं। इन मंदिरों का मूल स्वरुप कंक्रीट की मोटी परत के नीचे कराह रहा है। हम उसके मौलिक स्थापत्य को तबाह कर उसे बदसूरत बनाते जा रहे हैं।
सच पूछें तो ग्राम देवता क्या हैं, कौन हैं? हमारे नदियां, पहाड़, जंगल ही तो ग्राम देवता हैं। गोवर्धन पर्वत की कहानी हमें यही तो बताती है। कृष्ण मुझे लगता है, उस समय के बड़े समाज सुधारक रहे होंगे, जो उन्होंने इंद्र जैसे स्थापित देवता को उसकी औकात बताने और हम सबको जंगल और चरागाह का महत्व समझाने की कोशिश की। गौरतलब है कि कृष्ण किस देवता की पूजा करने को कह रहे हैं? गोवर्धन पर्वत की। गोवर्धन पर्वत का क्या महत्व था ग्वालों के लिए? वही तो उनका गौचर था!! उसी से समृद्धि थी, लक्ष्मी थी। और किस चीज़ से बचाता है गोवर्धन? बाढ़ से। आज हज़ारों सालों बाद भी हम यही कह रहे हैं के यदि जंगल है, पहाड़ है, तो वह पानी को धारण कर लेंगे और बाढ़ न आने देंगे, अकाल न पड़ने देंगे। आज भी हम वही बात कह रहे हैं। बस अपनी बात से देवता को जोड़ कर नहीं देख पाते, इसलिए शायद उनकी कृपा भी हमपर नहीं होती। सैकड़ों गाँव में ग्राम देवता का स्थान कहाँ है? नदी के पास या गाँव के पास के जंगल में या टीले या पहाड़ी पर या तालाब की मेंढ़ पर हमारे ग्राम देवता बैठे हैं। हमारी असली समृद्धि के कारक, हमारी प्राकृतिक सम्पदा- उसकी रखवाली कर रहे हैं। उनके सम्मान के चक्कर में न जाने कितने पाप होने से रुक जाते हैं। और न जाने कितने वंचितों को सामाजिक सुरक्षा मिलती है।
तो क्या करना चाहिए? ऐसे समय में जब हम उखड़े जा रहे हैं, जब घर बार बसाने का स्वप्न तक लोग त्याग रहे हैं, हम कैसे ग्राम देवताओं को पुनः स्थापित करें अपने जीवन में। जवाब साफ़ है। नहीं कर सकते। गाँव से शहर आने वालों की भीड़ में ग्राम देवता हम से यूँही बिछड़ते जाएंगे। और हम एक दिन उनके कोप का भाजन बनेंगे। अगर करना चाहेंगे तो महिलाओं से सीख ले थोड़ा। वह तो हज़ारों सालों से अपना घर छोड़ कर दूसरे घर जाती रही हैं। वह शायद बता पाएं के नए देवता को कैसे स्वीकार करना पड़ता है। बहुत सुनना पड़ता है के, "हमारे घर में ऐसा होता है बहू। आरती ऐसे, पूजा ऐसे, शगुन ऐसे, कथा ऐसे।" नयी जगह जाके अगर वहां के ग्राम देवता को अपनाना है तो सुनना तो पड़ेगा।
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ReplyDeleteबोहोत अच्छा लगा। इस विषय में चर्चा में ज़िंदा रखने की प्रयास करेंगे। लिखने के लिए आपको धन्यवाद।
ReplyDeleteshukriya Simanta.
Deleteबहुत ही सुंदर लेख । पढ़ कर बहुत अच्छा लगा । निसर्ग और मानव का रिश्ता बहुत ही अहम रहा है, जिस वजह से दोनों एक दूसरे के मदतगार साबीत हुए है । जैसे महाराष्ट्र के कुछ समूह ( कुणबी ) आज भी बैर की लकड़ी जलाते नही एवं उस पेड़ को काटते भी नही है । ओ समूह उसको अपना कुलदेवता मानता है। और शादी या किसी भी उत्सव में उस कुलदेवता की पूजा करते है । वैसे ही कुछ समूह "नाग" को अपना कुलदेवता मानते है , एवं कभी भी नाग नही मारते। लेकिन वर्तमान में लोग अपने कुलदेवता को भूलते जा रहे है , बहुत से लोगो को उनके कुलदेवता भी पता नही होंगे । मैं आपका बहुत ही शुक्रगुजार हु , आप "मैं कबीर" के नाम से लोगों तक पहुचा रहे है ।
ReplyDeleteसर हमारी जाट जागरण पत्रिका निकलती है। साथ ही www.jatjagran.com वेबसाईट है अगर आप भी इसमें अपना लेख प्रकाशित करवाना चाहेंगे तो आप हमें भेज सकते है हमें खुशी होगी। जाट समाज के विकास व उत्थान के लिए हम प्रयासरत हैं।
ReplyDeletejatjagran2017@gmail.com