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नदी में खेलते बच्चे


कीर्ति किरण बंदरु को सधन्यवाद-मंडला में नर्मदा नदी  का दृश्य 
अब मंडला के बाहर एक बाईपास बन गया है। बिछिया के लिए जाओ, तो वही लेना पड़ता है। पहले नर्मदा जी के अच्छे दर्शन होते थे बिछिया जाते वक़्त। रपटा घाट  पर पुराना पुल इस  तरह बना हैं  के आराम  से पूरी नदी दिखती है। दाहिने हाथ को सहस्त्रधारा तक और बाएं को किले तक। पर बायपास में पुल की रेलिंग इतनी ऊँची है  के बहुत थोड़े से दर्शन होते हैं  बल्कि अगर ध्यान न दो तो शायद पता ही न चले की नर्मदा जी आ गयी हैं। । आंखें भरके नहीं देख सकते अब। खैर, बात ये है के आज जब उसपर से गुजरा, तो नदी में खेलते बच्चे दिखाई दिए।

जब बच्चों के बारे में लिखता हूँ तो लगता है अपने बारे में लिख रहा हूँ। कोई भी बात हो, मुझे अपने  बचपन में ले जाती है। बहुत खेले हैं हम गंगा जी में। मुझे लगता है के कई सालों तक तो हर हफ्ते जाते थे। उत्तर प्रदेश में गजरौला के पास बृजघाट है न ! वहां।  मुझे याद नहीं के मैं कभी डरा हूँगा गंगा जी में नहाते समय। एक बार जरूर तिगरी मेले में पैर फिसला था और मैंने अपने ताऊ जी का कन्धा पकड़ लिया था।गंगा के घाटों में नहाते हुए बस गंगाजल का ठंडा स्पर्श ही याद है अभी।  29 साल की उम्र में जब ओडिशा गया और वहां महानदी में हाथ डाला, तो पहली बार पता चला के नदी का पानी हल्का निवासा सा भी लग सकता है। फिर मंडला आया तो पता चला के मध्य भारत की नदियों का मिज़ाज बदलता रहता है। कभी गर्म, कभी ठंडा, कभी निवासा। एक गंगा जी ही हैं जिनका मिज़ाज हमेशा कूल रहता है।

आप सोच रहे होंगे, के मैंने बच्चे खेलते हुए नहीं, नहाते हुए देखे होंगे। अगर ऐसा है, तो मैं स्पष्ट कर दूँ के बच्चे खेल ही रहे थे।  बच्चे नदी में खेलते हैं, नहाते नहीं। वे घंटों खेल सकते हैं। नदी उनके लिए एक खेल का मैदान है। बहुत से बच्चे वहीं तैरना भी सीखते हैं।  मेरा एक दोस्त बताता है होली के दिन होली खेल कर उनका यही काम होता था। रंग खेल कर सब दोस्त नर्मदा जी किनारे जाते और नदी में पड़े रहते।

मैं भी कभी कभी अपने बच्चों को नर्मदा जी पर लेकर गया हूँ। पर मुझे नर्मदा जी की छटा देखना तो अच्छा लगता है पर नहाने में उतना आनंद नहीं आता। दरअसल मेरा नदी का अनुभव तो गंगा के घाटों से है। उसमें तो बिना कोई परवाह किये दौड़ते हुए नदी में कूद सकते हैं। नर्मदा जी में पत्थर-चट्टान का ध्यान रखना पड़ता है। चूक हुयी नहीं के घुटने छिल जाएंगे। नदी की गहराई भी असमान रहती है। पर मंडला के बच्चे तो क्या जबरदस्त जानते हैं नदी को! मैंने कइयों को जबरदस्त करतब दिखाते देखा है नर्मदा जी में।

ये क्या रिश्ता है?? कहाँ गायब हो रहा है!! समझ नहीं आता। जो बच्चे नर्मदा जी में खेल रहे हैं, उन्ही से उम्मीद है कि सूखती नर्मदा जी की मदद करेंगे। जिन्होंने नदी में जाना ही छोड़ दिया है उनका नदी से क्या रिश्ता! उन्हें सिर्फ चिंता होगी, करेंगे कुछ नहीं। वैसे पता नहीं ये नदी में खेलते बच्चे भी अपना रिश्ता कायम रख पाएंगे या अपने सपनों की तलाश में दूर चले जाएंगे। उनकी स्मृतियों में नदी चीखती रहेगी, पुकारती रहेगी पर ये वापस  न आएंगे। जो बच्चे अपनी नदी को बचाने की कोशिश करेंगे, उनको हम अकेला छोड़ देंगे जैसे डॉ. जी.डी. अग्रवाल को छोड़ दिया। उसने गंगाजी को बचाने के लिए अनशन करके जीवन त्याग दिया पर हमें क्या फ़र्क़ पड़ा? कुछ नहीं!! हम तो आंसू भी न बहाये उनकी मौत पर ! नदी पर मरने वाले शहीद नहीं कहलाते हमारे समाज में!

विकिपीडिया से साबरमती रिवर फ्रंट की तस्वीर 
खबर है कि केंद्र और राज्य सरकारें, दोनों शहर में बहती नदियों के स्वास्थय के प्रति सचेत हो गयी हैं। इस खातिर नदियों के दोनों ओर सुन्दर घाटों और दीवारों का निर्माण होगा। इसका अर्थ है के हमें शहरों की लम्बाई तक नदी का प्राकृतिक किनारा देखना नसीब न होगा। पूरे किनारे कंक्रीट की दीवार से पाट दिए जाएंगे। शहरी बच्चे नदी से वह रिश्ता ही नहीं बना पाएंगे जो उनके पुरखों का कभी था।ऐसी नदी में न मल्लाहों की जगह होगी, न छोटे छोटे मंदिरों की और न मछुआरों की। रिवर फ्रंट  की योजना, नदी से हमारे बदलते रिश्ते की परिचायक है।  ये बिलकुल पश्चिमी सोच पर आधारित है। नदी और समाज के रिश्ते को समझना रिवर फ्रंट वालों के बसकी बात नहीं है। ये लोग प्रकृति को इंसान से इतना दूर ले जाना चाहते हैं के हम बस उसे एक म्यूजियम के शो पीस की तरह देखें। उससे रिश्ता न बना लें।वह हमारे सौंदर्य बोध मात्र का हिस्सा  हो,जिंदगी का नहीं।

कुछ इसी तरह हम अपने आप को जंगल से दूर कर रहे हैं। सारे घने जंगलों को घेरा जा रहा है और  लोगों को वहां से खदेड़ा जा रहा है। क्या ये वाजिब है ? गोंड और बैगा आदिवासियों के तो वंश भी जानवरों के नाम पर हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक उनके सारे संस्कार जंगल  से जुड़े हैं। उनको जंगल से बाहर करने की कवायद के शायद 200 साल पूरे हो गए होंगे। अब सुनने में आया है के आगामी 24  जुलाई को सुप्रीम कोर्ट कुछ "फाइनल सोल्युशन" देगा।

प्रकृति के साथ रहने में मुश्किल क्या है? हालाँकि मैं एक पक्के घर में रहता हूँ। पर मंडला का मानसून घरों में घुस आता है, झींगुरों, चींटियों, मच्छरों और छिपकलियों के रूप में। कभी कभी मेंढक भी अपना रास्ता भूल जाता है। घर के बगल  का प्लाट मेंढकों की   गुर्राहट से गूंजने लगता है। पहले मुझे इस सबसे सिहरन होती थी। अब कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता।  जीवन में हम दूसरे जीवों को जगह दें, यही  सह-अस्तित्व है। न कि ये के हम उन्हें अपने से दूर रखें। गाँव में तो चीतल, बाघ, सूअर के साथ भी लोग जीवन गुजार रहे हैं। सही है के वह भी उनसे बचने के तरीके ढूंढते हैं। पर यही तो खोज होनी चाहिए,  बिना एक दूसरे के रास्ते में आये, हम कैसे एक साथ रह सकें। न कि ये के हम बस दीवारें ही खींचते रहें , और उन्हें और ऊँची करते रहे। 



Comments

  1. आधुनिकरण में सब नष्ट हो गया है, अब बच्चों का बचपन भी जीवन में आगे बढ़ने और दूसरों को पीछे छोड़ने की दौड़ में बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी में जुटा हुआ है।
    यह शुरुआत हमसे ही हुई है, यह सब अचानक नही है, हमने ही उन्हें सिखाया है कि जीवन में सबसे आगे रहो। हमनें भी अपनी आधुनिकता वाली जीविका के लिये प्रकृति से दूर एक नई दुनिया में जा बैठे है, हम ही हमारे बच्चों के आदर्श है। वह हमारे नक्शेकदम में चलकर हमशे एक कदम आगे जाएंगे।
    पता नही प्रकृति के प्रति हम कब सचेत होंगे, कब यह आधुनिकता की नींद से हम जागेंगे.....!

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    1. शुक्रिया तेजराम भाई। मुश्किल तो है, हर चीज़ थोड़ा अपने से शुरू करें।

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  2. Bahut accha likha hai Ishan.....padhte hue mujhe yoon lag raha tha ki is tarah ka bayan ..har abhibhavak ko aur har shikshak ya shikshika ko samajhna chahiye ....bachhon ki duniya kitni alaida hoti hai.....aise hi likhte rehna ...dost

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  3. धन्यवाद माधवी जी.. लिखता रहूंगा।

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  4. बहुत सुंदर लिखा है ईशान आपने।

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