इस आलेख की विषयवस्तु 2011 में बनी हॉलीवुड फिल्म "पॉलिटिक्स ऑफ़ लव" नहीं है जिसकी कहानी एक डेमोक्रेट पार्टी समर्थक और एक रिपब्लिकन पार्टी समर्थक पुरुष और स्त्री के बीच प्रेम की गुंजाइश को तलाशती महसूस होती है। मालूम हो कि भारतीय अभिनेत्री मल्लिका शेरावत ने उसमें एक अहम् किरदार निभाया था। मैं मई 2023 में मृणाल पण्डे जी के द वायर में छपे "Why We Need to Embrace a Politics of Love" नामक लेख के बारे में भी बात नहीं कर रहा जिसमें उन्होंने राहुल गाँधी द्वारा प्रधानमंत्री को संसद में गले लगाने के उपक्रम पर टिपण्णी की थी।
ये विचार जो मैं यहाँ बांटना चाहता हूँ वो हमारे चारों ओर बढ़ती हिंसा और उसके मेरे और मेरे आसपास के लोगों के अंतर्मन पर लगातार पड़ने वाले असर का परिणाम है। कोई दिन ऐसा बीतता नहीं जब कोई ऐसी बात न होती हो जिससे मन में तेज़ नफरत न फूटती हो। पर क्या करें। कुछ न कर पाने की विवशता से निकला हुआ लेख है ये। एक व्यथित मन की किंकर्तव्यविमूढ़ता का अपराधबोध।
मुझे यकीन है कि जो मैं लिख रहा हूँ वह कोई मौलिक विचार नहीं है। मुझे तो अम्बेडकर के प्रसिद्द लेख "अन्निहिलेशन ऑफ़ कास्ट " यानी "जाति का खात्मा" में भी प्रेम की राजनीति के बीज दिखाई देते हैं। टैगोर की वैश्विक दृष्टि में भी प्रेम की राजनीति के अंश हैं। बुद्ध और गाँधी के विचारों में भी कुछ झलक है। धर्म और जाति के विभाजनों को चुनौती देता भारतीय राष्ट्रवाद भी कुछ इसी प्रकार से लुक-छिपकर प्रेम की शक्ति, ख़ास तौर पर उसकी राजनीतिक और सामाजिक शक्ति का लाभ लेता तो दिखाई देता है। पर कोई भी गंभीर राजनैतिक विमर्श या राजनीतिज्ञ खुल्लमखुल्ला प्रेम की राजनीति पर बात करने से हिचकता नज़र आता है। पर मैं JNU के राजनीतिक शास्त्र विभाग का असफल विद्यार्थी भी हूँ। तो इस संदेह का लाभ लेना चाहूंगा कि जो मैं कह रहा हूँ वो शायद सही न हो।
जो कह रहा हूँ उसका कुछ हिस्सा निष्ठा कुमारी सिंह के हिन्दू में लिखे एक लेख में भी है। लेखक का शीर्षक है "पॉलिटिक्स ऑफ़ लव " (https://www.thehindu.com/opinion/open-page/politics-of-love/article66193389.ece )। भारत में प्रेम करने बहुत कठिन है।बल्कि एक खतरनाक काम है।फिर भी लाखों लड़के लड़कियां ये जोखिम उठाते हैं।समाज और परिवार के बंधनों को काटते हुए, अपने दम पर अपनी शर्तों पर ज़िन्दगी चुनना बेहद कठिन है।कई बार ऐसे रिश्तों के कारण परिवार की संपत्ति और सहायता से हाथ धोना पड़ता है।एक लड़की के लिए तो और भी कठिन है क्योंकि अपने परिवार से तो वैसे भी शादी के बाद आम तौर पर कोई सहयोग की उम्मीद नहीं होती और सिर्फ एक विश्वास की डोर सहारे जीवन नैया पार लगने की संभावना होती है। कोई अनहोनी हो गयी तो न इधर के रहोगे न उधर के। प्रेम पर इस तरह की बंदिशों से सभी राजनीतिक ताक़तों को प्रेम की शक्ति की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। वे अपनी अपनी सामाजिक गोलबंदी करके खुश हैं।वे समाज में ऐसी किसी भी संभावना के खिलाफ ही काम करेंगे जो उनकी गोलबन्दियों के बाहर एक ऐसा तबका तैयार करे जो धर्म या जाति के चश्मे से न देखता हो। प्रेम बहुत बड़ी सामाजिक सुधार शक्ति है जिसके महत्त्व को राजनीति पूरी तरह से विमर्श से बाहर रखती है। क्योंकि ये न सिर्फ राजनीतिक सत्ता बल्कि शक्ति की दूसरे विशाल स्रोत जैसे कि पितृसत्ता, परिवार की तानाशाही, धर्म के ठेकेदारों की अंधेरगर्दी को भी सीधी और गहरी चोट पहुंचाती है।
बीबीसी की एक रिपोर्ट में 2018 के एक सर्वे के बारे में पता चलता है। 160000 परिवारों के इस सर्वे ने बताया कि करीब 93 % दंपत्ति भारत में अरेंज्ड मैरिज यानी माता पिता के अनुसार शादी करते हैं। इसमें बुजुर्ग दम्पत्तियों के मुक़ाबले नौजवान दम्पत्तियों का प्रतिशत मामूली रूप से ही अलग मिला।नौजवानों में ये प्रतिशत 90 था और बुजुर्गों में 94 । अप्रैल 2023 में एक और सर्वे आया था जो इसके उलट बहुत उत्साहजनक था। उस सर्वे के अनुसार जहाँ 2020 में 68% लोग अरेंज्ड मैरिज कर रहे थे, 2023 में यह संख्या मात्र 44% रह गयी (https://www.outlookindia.com/business/love-marriages-on-rise-in-india-as-arranged-marriages-witness-24-decline-survey-news-281344 ) । इस सर्वे के करने वाली संस्था एक निजी संस्था है तो इसलिए मैं मानता हूँ कि यह सर्वे उसने समाज के हर वर्ग को ध्यान में रख के नहीं बल्कि अपने बाजार को ध्यान में रख के किया होगा।इसका अर्थ यह निकलता है कि देश के धनी वर्ग ने तो प्रेम की ताक़त को पहचान लिया है पर गरीब वर्ग या निम्न मध्य वर्ग भी इसकी ताक़त से दूर है।इसका अर्थ क्या निकला? हमें मालूम है कि देश का धनी वर्ग लगभग पूरा का पूरा अगड़ी जातियों से आता है। गरीब वर्ग पिछड़ी जातियों से।यानी प्रेम भी जाति और आय वर्गों के आधार पर उपलब्ध संसाधन है।यदि आप गरीब हैं तो आपके पास प्रेम के और कम मौके हैं। इसका दूसरा अर्थ यह है कि हमारे यहाँ प्रेम धर्म, जाति और वर्ग की बाध्यताओं को ध्यान में रख कर किया जाता है। इसे मेँ कहता हूँ हिसाबी-किताबी प्यार। हिसाबी-किताबी प्यार कुछ तो बेहतर हासिल करता है पर प्रेम के गहरे अर्थों को बाहर लाने की क्षमता इसमें नहीं है। हाल ही में ऐसी फिल्में भी बहुत बनी हैं जिसमें ट्रांसजेंडर प्रेम को दिखलाया गया है। यह अच्छा है पर इसका एक्सपोज़र सिर्फ नेटफ्लिक्स के उपभोक्ताओं तक ही है। पर इस सीमित उपयोग में भी कई मान्यताओं को चुनौती देने का प्रयास तो किया ही है इन फिल्मों ने।
प्रेम करने की आज़ादी के सवाल कई हैं। सिर्फ सामाजिक बंधन ही नहीं, आर्थिक बंधन भी प्रेम की गुंजाइश को कम करते हैं। शहरों में वो जगहें जो प्रेम को पनपने की जगह देती हैं, जैसे कि पार्क, नदियों के किनारे, या नुक्कड़ की दुकानें आदि। अधिकतर जगहों पर फीस एंट्री फीस लगा दी गयी है। मॉल और सिनेमा हॉल इतने महंगे हैं कि गरीबों के हाथ से ये जगहें फिसल जाती हैं। अभी कुछ दिन पहले एक चर्चा में शामिल एक साथी ने कहा कि जब पैसे कम हो तो हम पानीपूरी खाने जाएंगे। लेकिन पानीपूरी 5 मिनट में ख़त्म हो जाती है। प्रेम के लिए तो समय चाहिए। कुल मिलाकर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में अमीर के प्रेम की जगह है , गरीब के प्रेम की नहीं।
प्रेम का समाज
प्रेम को यदि एक सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से देखा जाए और प्रेम आधारित एक समाज का विज़न सामने रखा जाए तो शायद समाज के सामने एक बेहतर विकल्प आता। कैसा समाज होगा वह?
प्रेम की बुनियाद ही रूढ़ियों की राख पर रखी जाती है। प्रेम धर्म, जाति, वर्ग और जेंडर के भेदों को तोड़ता हुआ प्रेम समाज को उदार बनाता है। सोचिये यदि प्रेम से उपजी एक पीढ़ी हमारे सामने हो, तो कितने ही सामाजिक परिवर्तनों का कारण बनेगी। एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की जो किसी न किसी रूप में उदारवादी होंगे और समाज में एक सृजनात्मक टेंशन पैदा करेंगे जो समाज को आगे लेकर जायेगी।
प्रेम युक्त समाज में धार्मिक और जातिगत राजनीति की जगह काफी कम हो जायेगी। इसकी जगह वर्ग आधारित चेतना ले सकती है। इससे समाज में जन गोलबंदी अमीर और गरीब के बीच होने की सम्भावनायें बढ़ जाएँगी और जनतांत्रिक प्रक्रियाओं में गरीबों की बात शायद बेहतर ढंग से हो पाएगी। ऐसा नहीं कि आज गरीबों के जनसँख्या कम है। पर वह अपने अपने धर्म और जाति में उलझे हुए हैं। यहाँ तक कि अमेरिका में भी गरीब नस्लीय भेदभावों के कारण इकट्ठे नहीं हो पाते। प्रेम एक नए प्रकार के सामाजिक समीकरणों को जन्म देगा जो पुराने सभी बंधनों से परे होगा।
प्रेम एक अलग प्रकार की चेतना को भी जन्म देता है। मसलन यदि प्रेमी किसी ख़ास जगह पर मिलते हैं, जैसे नदियों या झीलों के किनारे, पार्कों में, या यात्राओं के जरिये, तो उन्हें उस जगह से भी प्रेम हो जाता है। मैं ऐसे कई प्रेमी जोड़ों को जानता हूँ जो अपने मिलने की जगह का वर्णन ऐसे करते हैं जैसे वह जन्नत का वर्णन कर रहे हों। ऐसा करते हुए वह अनजाने में अपना और उस जगह का एक रिश्ता बना लेते हैं। यह रिश्ता शायद इन जगहों के संरक्षण में एक भूमिका निभाएगा। यह साहित्य, संगीत और कला की अन्य विधाओं के अलावा प्रकृति के प्रति मनुष्य के अनुराग को भी शायद और अधिक प्रतिष्ठित करे।
प्रेम कुल मिलकर एक बेहतर इंसान और एक बेहतर नैतिक समाज की नींव रखता है। यह हमें एक अलग व्यक्ति के प्रति सहिष्णु या टॉलरेंट बनाता है। यह नए समाज का सृजन करता है। और आने वाले कल में उम्मीद पैदा करता है। एक नफरत से भरे मन में सिर्फ विनाशकारी ख्याल ही आते हैं। बाकी प्रेम से होने वाले हेल्थ सम्बंधित फायदों के लिए आप इंटरनेट देखिये।
हम क्या कर सकते हैं
हम कम से कम अपने बच्चों को प्रेम की शक्ति से परिचित करा सकते हैं। बाकी का काम प्रेम खुद कर लेगा। सरकार अलबत्ता इसके लिए काफी कुछ कर सकती है। पहला तो प्रेमियों की सुरक्षा के लिए कुछ कदम उठा सकती है। अंतर्जातीय और अंतर धार्मिक विवाहों को संरक्षण दे सकती है। ऑनर किलिंग जैसे जघन्य अपराधों पर तो नकेल कस ही सकती है। प्रेम पर पहरा बैठाने वाले स्वघोषित धार्मिक ठेकेदारों को रोक सकती है। प्रेम के लिए जो तिरस्कार हमारे कानून व्यवस्था में है, उसे ही कम करने की कोशिश कर सकती है। इतने भर से ही प्रेमियों को मदद मिलेगी जिन्हें तमाम खतरे उठाने होते हैं प्रेम की अभिव्यक्ति के।
आपका प्रेम से सराबोर पोस्ट पढ़ कर बड़ा आनंद आया , आपका और आपके सभी पाठकों का जीवन प्रेम से सदा भरा पूरा रखे
ReplyDeleteGood to read a different perspective on love
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख है, और विषय उससे भी ज्यादा सुंदर है|
ReplyDeleteप्रेम बंधन रहित होता है, और समाज को बंधे हुए लोग पसंद है|
हम प्रसाशन से प्रेमियों की सुरक्षा की मांग कर रहें है और वर्तमान में संस्कृति के नाम पर न जाने क्या क्या लोग कर रहे हैं|