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89 का बचपन- पठान की आँखें

तस्वीर- ANI से मुरादाबाद के एक पीतलक के कारीगर की 


बहुत खूबसूरत दिन था वो!

आखिरी इम्तिहान का दिन! मैंने बड़ी मेहनत की थी। पूरे इम्तिहान के दौरान रात को 11 बजे सोता था, 5 बजे जागता था। पांचवी क्लास के बच्चे के लिए इतना बहुत था। सुबह सुबह उठ के सबक दोहराना, नहाना-धोना, भगवान के सामने माथा टेकना, और फिर स्कूल जाना। स्कूल बस  में भी किताब निकाल कर दोहराना बड़ा लगन का काम था। 

इम्तिहान ख़त्म होने के बाद के बहुत से प्लान थे। 

जैसे फटाफट, पास वाली दुकान से ढेर सारी कॉमिक्स किराए पर लानी थी। बुआ जी के घर जाकर बहनों के साथ खेलना था। वगैरह वगैरह। हसनपुर भी जाना था। मुरादाबाद में तो मैं अकेला था चाचा के पास। हालाँकि उस समय इम्तिहान की वजह से मम्मी पापा मुरादाबाद में ही थे। वहाँ के चामुंडा मंदिर और शिवालय की बहुत याद आती थी। 

खैर! इम्तिहान देने के बाद स्कूल से ही छुट्टी का जलसा शुरू हो चुका था। सब बच्चों के चेहरों पर ऐसी ख़ुशी थी जैसे सब जेल से छूटे हों। आखिरी दिन पर फैज़ल, शहज़ाद, अमित और मैं अपने पेपर नहीं मिला रहे थे। बस, हम सब बहुत खुश थे। कूद रहे थे। एक दूसरे को छेड़ रहे थे।आया बी भी कुछ ज़्यादा ही छूट दे रहीं थी सभी को। बस जूतमपैजार न हो, इतना ही ख्याल था उन्हें। उस दिन स्कूल बस से मिराज़ ने न जाने कितनों की टोपियां खींची। मुझे यह बिलकुल पसंद नहीं था, पर उसे न जाने क्या मज़ा आता था। 

मुरादाबाद की गलियों से गुज़रती हमारी छोटी सी मिनी-बस ने आधे घंटे में ही एस. कुमार चौराहे के करीब पहुंचा दिया। गलियों में कबाब की महक फैली हुयी थी। मुझे असल में सालों बाद पता चला, कि वह सलाखों पर लिपटा मिल्ककेक नहीं मटन था। अब कभी कभी हंसी आती है अपने अज्ञान पर। 

एस. कुमार चौराहे पर मैं उतरता था बस से। मेरा पहुँचने का वक़्त और दोपहर की अज़ान का वक़्त एक ही था। इधर मैं उतरा, उधर अज़ान हुई। मैं चहकता हुआ घर की ओर चल दिया। कुछ ही कदम चलने पर मुझे एक आदमी ने रोक लिया। उसने मेरे कानों पर हाथ रखा और मुस्कुराता हुआ कुछ बुदबुदाया- अशहदु अल ला इलाहा इलल्लाह, अशहदु अल ला इलाहा इलल्लाह। सफ़ेद क्रोशिया वाली टोपी पहना, बूढाया हुआ, 6 फुटा आदमी।  सुर्ख रंग, तीखी आँखें, बदन पर सुन्नी कुर्ता पायजामा और होंठों पर मुस्कराहट। मेरे मन ने उसे एक पठान के फ्रेम में फिट कर लिया। 

 मुझे तो जैसे काठ मार गया। उस भीड़ भाड़ वाली गली में आज तक मुझे किसी ने ऐसे रोका नहीं था। मैं उसे बिलकुल नहीं जानता था और वह भी मुझे नहीं जानता था। पर उस एक पल में मेरी जान सूख गयी। मेरे आधे से ज़्यादा दोस्त मुसलमान थे। मुसलमान टीचर मुझे पढ़ाते थे। पर एक मुसलमान का दिन दहाड़े मुझे ऐसे पकड़ना, मुझे अंदर तक डरा गया। मेरे लिए उस पल वह इंसान नहीं था। वह बस एक मुसलमान पठान था। 

मेरे चेहरे पर डर देखकर पठान भी सकपका गया। उसने फ़ौरन छोड़ दिया और आगे बढ़ गया। और मैंने घर की ओर भग्गी काट दी। बहुत तेज़ दौड़ा मैं, और बीच बीच में पीछे भी देखता रहा कि कहीं वो पठान पीछे तो नहीं आ रहा। थोड़ी देर बाद जब रुका तो सोचा कि उसने क्यों मुझे ऐसे रोका होगा? मैंने इस बारे में किसी को कभी  कुछ नहीं बताया। 

कई सालों मैं इस वाकिये के बारे में सोचता रहा। आखिर क्यों उस पठान ने मुझे रोका होगा। वह क्या बुदबुदा रहा था , मेरे कानों को उँगलियों से बंद करके !! ये सवालों ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। वह मुझे किडनैप करने की कोशिश नहीं कर रहा था, ये तो ज़ाहिर है। नहीं तो ऐसे कैसे भाग गया मुझे छोड़ के। 

कई सालों बाद सोचते सोचते मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि उसने असल में मुझे एक मुसलमान बच्चा समझ लिया था। उस सड़क पर हिन्दुओं से ज़्यादा मुसलमान थे, इसमें तो कोई शक ही नहीं था। उसने सोचा होगा कि ये बच्चा अज़ान के वक़्त दौड़ता हुआ घर जा रहा है, इसे अज़ान सुन लेनी चाहिए।  जैसा कि हमारे घर में भी बच्चों को पूजा के वक़्त ध्यान देने को कहा जाता था। उसे यह ख्याल ही नहीं आया कि मैं हिन्दू हो सकता हूँ। 

ठीक है, उसने मुझे छोड़ दिया। पर वो भगा क्यों? क्योंकि वह भी डर गया था। मेरी तरह। गोकुलदास रोड जिसपर एस.कुमार चौराहा था, असल में हिन्दू और मुसलमान बस्तियों की सरहद थी। उसे लगा होगा की अगर मैं चिल्लाया, तो बलवा हो जायेगा। वो भी भगा और मैं भी। 

इस बात को 30 साल हो गए और मुझे इस बात को समझे कुछ 20 साल। 

नफरत और डर इंसान के ज़हन की आँखों पर एक पट्टी बाँध देते हैं। उसे फिर एक ममता भरा स्पर्श भी ज़हर बुझा तीर सा लगता है। एक वाक़्या जो दो इंसानों को जोड़ने वाला वाक़्या था, उससे हम दोनों ही डरते रहे। हम सब डरते ही रहते हैं ज़िन्दगी भर। 

अब कभी मुरादाबाद जाता हूँ तो मस्जिदों से निकलते उन हज़ारों टोपी वाले लोगों में मैं उस पठान को ढूंढता रहता हूँ। उसकी तीखी आंखें जिनकी ममता अब जाके समझ पाया हूँ, वह मेरा पीछा करती रहती हैं। मुझे लगता है कि मैंने उसके अंदर हमेशा के लिए एक अपराध-बोध छोड़ दिया है। मैं माफ़ी मांगना चाहता हूँ। पर मन मसोस कर रह जाता हूँ। 



Comments

  1. बहुत ही मार्मिक और प्रासंगिक

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  2. 🙏 सर आप ये बचपन की कहानी एमपीटीसी मंडला में टीम मीटिंग के दौरान अपनी अपनी जीवन के कुछ यादगार पल बताए जाने वाले टॉपिक में सभी टीम मेंबरों को अवगत कराये थे, में आपकी ये कहानी को बहुत ध्यान से सुना और समझा था आपका यह ब्लॉग लेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा धन्यवाद सर!!

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