बीसवीं सदी में वैज्ञानिकता का मुलम्मा ओढ़े बहुत से ऐसे पुरातनपंथी विचारों ने जगह बनाई जिसने हमारी गैर-बराबरी वाली दुनिया को यथा-स्थिति बनाये रखने में खूब मदद दी। ऐसे विचारों का पूरी तरह मिट्टी में मिला देना जरूरी है जो आधुनिकता का मुलम्मा ओढ़े हैं पर असल में बहुत गहरे तक इंसानियत की सीमा बांधने वाले काले विचारों से प्रेरित हैं। बीसवीं सदी के अमेरिकी पारिस्थितिकी विशेषज्ञ, गैर्रेट हार्डिन की "ट्रेजेडी ऑफ़ कॉमन्स" की परिकल्पना ऐसा ही एक विचार है।
ट्रेजेडी ऑफ़ कॉमन्स क्या है
हार्डिन का "द ट्रेजेडी ऑफ़ कॉमन्स" नाम का निबंध 1968 में शोध प्रबंधों को छापने वाली विख्यात पत्रिका "साइंस" में छपा। इस निबंध ने अपने समय के बुद्धिजीवी जगत में तहलका मचा दिया था। शायद ही कोई ऐसा विषय हो जिस पर हार्डिन के लेख का प्रभाव न पड़ा हो , चाहे वह अर्थशास्त्र हो या विज्ञान या पारिस्थितिकी या राजनीति शास्त्र।
"ट्रेजेडी ऑफ़ कॉमन्स " है क्या ? मध्यकालीन ब्रिटेन में हर गाँव के एक हिस्से को सबके उपयोग के लिए रखा जाता था। यह खेती की ज़मीन के बाहर का एक हिस्सा होता था जिसे कॉमन्स कहते थे। हमारे देश की भाषा में कहें तो शामलात या सामुदायिक संसाधन।जहाँ हर किसी का हक़ था और हर कोई उसका उपयोग लकड़ी, चारे या शिकार वगैरह के लिए कर सकता था। हार्डिन का कहना था कि कॉमन्स लम्बे समय तक एक बेहतर व्यवस्था नहीं हो सकते क्योंकि इंसान मूलतः एक खुदगर्ज़ जानवर है। मान लीजिये कि कॉमन्स एक चारागाह है तो हर कोई पशुपालक उसका उपयोग जल्द से जल्द और ज़्यादा से ज़्यादा करना चाहेगा ताकि उसे दूसरे पशुपालकों से पहले और उनकी तुलना में ज़्यादा फायदा मिलने की संभावना हो। और चूँकि वह ज़मीन उसकी नहीं है, तो वह उसका रखरखाव भी नहीं करेगा। नतीजा यह कि ऐसी चारागाह वक़्त के साथ तबाह होती जायेगी। हार्डिन ज़मीन या जंगल जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर निजी स्वामित्व के पैरोकार के रूप में सामने आते हैं। वे पूंजीवाद को एक वैज्ञानिक आधार देते हैं। साथ ही वह प्राकृतिक संसाधनों के सरकारी नियंत्रण के विचार को भी हवा देते हैं। हार्डिन की दुनिया में दो ही सच्चाई हैं- जमीन का मालिक या तो कोई एक निजी व्यक्ति या कंपनी हो, या फिर सरकार। "कॉमन्स" जैसा कुछ कभी सफल नहीं हो सकता।
1968 के अपने लेख में हार्डिन ने आबादी को बेतहाशा बढ़ाने लिए जनता (विशेषकर गरीब मुल्कों के लोग जो अमीर देशों में बसते जा रहे थे) की खुली छूट पर चिंता जताई है। एक तरह से उन्होंने कहा कि ऐसी क़ौमें जिनमें बच्चे पैदा करने को लेकर कोई रोक नहीं हैं, वह दुनिया के लिए अच्छी मिसाल नहीं हो सकती। अपने इस विचार को उन्होंने 1974 के अपने लेख में और विस्तार दिया। उन्होंने कहा कि मान लीजिये सभी देश असल में एक नाव पर सवार कुछ लोगों का समूह है। कुछ नावों में लोग ज़्यादा हैं और कुछ में कम। जिन में ज़्यादा लोग सवार हैं, ऐसी नावें गरीब देशों की हैं। उनमें से कुछ लोग जो तैर सकते हैं, वह अपनी नाव छोड़ कर दूसरी नावों यानी अमीर देशों की तरफ चले जाएंगे। अब अमीर देशों पर है कि वह ऐसे लोगों को अपनी नाव में आने दे या नहीं।
ट्रेजेडी ऑफ़ कॉमन्स के विचार का प्रभाव
"ट्रेजेडी ऑफ़ कॉमन्स "के विचार ने कुछ दो पीढ़ियों के दिमागों को बनाने में अपनी भूमिका अदा की है। कई राजनीतिक, प्रशासनिक और पर्यावरण सम्बन्धी विचारों की ज़मीन तैयार की है। यह आश्चर्यजनक रूप से सामान्य समझ से मेल खाती सी दिखती है। अंग्रेजी की मशहूर कहावत है, "everybody's property is nobody's property", गर्रेट हार्डिन का तर्क कुछ ऐसा ही है।इसके एक दम से कई सारी तस्वीरें हमारे दिमागों में आ जाती हैं जैसे गंदे सार्वजनिक शौचालय, खस्ताहाल सड़कें, शहरों में बढ़ते कूड़ों के ढेर वगैरह वगैरह। जिसने भी सार्वजनिक बस-स्टैंड या रेलवे स्टेशन का अनुभव किया होगा, उसने वहां मौजूद लोगों के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार को देखा होगा, जोकि पहली नज़र में हार्डिन के "ट्रेजेडी ऑफ़ कॉमन्स" के विचार की तस्दीक करते हैं यह सब मुख्य रूप से इस विचार के द्वारा यूँ समझाए जाते हैं कि क्योंकि इनका इस्तेमाल करने वाले मनुष्य स्वार्थी हैं। उन्हें संसाधन से कोई प्रेम नहीं। वह मात्र उपयोगकर्ता हैं और कुछ नहीं। ट्रेजेडी ऑफ़ कॉमन्स का उपयोग हर उस विचार को समझाने में किया गया है जिससे संसाधनों पर अधिकतर निजी हक़दारी बढ़ाने को बल मिलता है और कभी कभी सरकारी हक़दारी भी। ट्रेजेडी ऑफ़ कॉमन्स एक तरफ राष्ट्रीय पार्कों और अभयारण्यों के पीछे की सोच को बल देता है तो दूसरी तरफ पानी के निजीकरण को भी। कुल चालीस हज़ार से ज्यादा बार संदर्भित किया हुआ ट्रेजेडी ऑफ़ कॉमन्स का आलेख, शोध की दुनिया में अभी भी धूम मचा रहा है।
कॉमन्स समर्थकों का 53 साल का संघर्ष
हार्डिन का ट्रेजेडी ऑफ़ कॉमन्स दुनिया भर में और ख़ास तौर पर विकासशील देशों में रह रहे उन हज़ारों लाखों मूल निवासी समाजों और विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के लिए लड़ रहे असंख्य समूहों और कार्यकर्ताओं के लिए धक्का थी। इसको चुनौती देने का काम लगभग उसी समय शुरू हो गया था। 90 के दशक तक आते आते नोबेल पदक विजेता अर्थशास्त्री एलिनोर ओस्ट्रॉम ने इन प्रयासों को अपने विश्लेषण की मदद से मान्यता दिलवाई। पर आज भी हार्डिन का लेख पारिस्थितिकी, अर्थशास्त्र आदि विषयों के पाठ्यक्रम में शामिल है और आज के वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों के विचारों को प्रभावित कर रहा है।
अगर हम आप भी गौर से साझा संसाधनों की समस्याओं को देखेंगे तो शायद एहसास होगा कि असल में संसाधनों का दोहन एक सड़ी हुयी व्यवस्था के निशानी हैं। मसलन खस्ताहाल सड़कें, बस स्टैंड या सार्वजानिक पार्क इसलिए खस्ताहाल हैं क्योंकि इनको बनाने वाले ठेकेदारों के काम में गुणवत्ता और पारदर्शिता दोनों की कमी है। इन्हें प्रयोग में लाने वाले सर्वजनों का इनकी स्थिति में योगदान अपेक्षाकृत काफी कम है। पूरी दुनिया में सार्वजनिक संसाधनों पर असल सवाल यदि किसी ने उठाये हैं तो वह यही जनता है। आदिवासी समाज, और ग्रामीण समाज इसमें मुख्य भूमिका में है। बाकी तो सब कागज़ के शेर हैं।
हार्डिन की सोच के पीछे क्या था
बहरहाल, यदि हार्डिन पर वापस जाते हैं , तो हमें पता चलता है कि जनाब हार्डिन साहब सिर्फ एक पर्यावरण विशेषज्ञ नहीं थे। वह एक श्वेत राष्ट्रवादी थे जिन्होंने जीवन भर अमेरिका में प्रवासियों के आने का विरोध किया। इस मामले में ट्रम्प और उनके विचार कोई बहुत अलग नहीं थे। अपने जीवन के बड़े हिस्से में वह श्वेत राष्ट्रवादी संगठनों के सदस्य रहे। ये कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं कि वैज्ञानिक लगने वाले "ट्रेजेडी ऑफ़ कॉमन्स" के विचार को हाथों हाथ लिया गया और इसका उपयोग नस्लवाद से प्रेरित अन्य विचारों जैसे बढ़ती जनसँख्या को दुनिया की सभी समस्याओं का केंद्रबिंदु मानना, प्रवासियों का विरोध करना, या संसाधनों के निजीकरण जैसे कई विचारों को आगे बढ़ाने के लिए किया गया।
अमेरिका स्थित नस्लवाद के खिलाफ जनमत बनाने को समर्पित संस्था, "साउथर्न पावर्टी लॉ सेंटर " के अनुसार हार्डिन एक प्रवासी विरोधी गोरों की नस्ल को विश्व में श्रेष्ठ मानने वाले एक फासीवादी थे। उनकी इस व्याख्या का आधार है उनके ऐसे कई दलों ("फेडरेशन फॉर अमेरिकन इमीग्रेशन रिफॉर्म्स" और श्वेत राष्ट्रवादी "सोशल कॉन्ट्रैक्ट प्रेस" ) का सदस्य होना जिनका सीधा मक़सद एक नस्ल आधारित अमेरिकी राष्ट्र बनाना था। उन्होंने ऐसे कई कानूनों और नीतियों का विरोध किया जो अमेरिका में गरीब देशों आ रहे लोगों का स्वागत करते थे। अमेरिकी समाज की विविधता का विरोध किया। और उनका यही विरोध ट्रेजेडी ऑफ़ कॉमन्स के विचार में झलकता है।
विज्ञान की राजनीति
हार्डिन की कहानी हमें विज्ञान की राजनीति पर ध्यान देने की और बाध्य करती है। विज्ञान को राजनीति में इस्तेमाल करना कोई नयी बात नहीं है। मसलन बरसों तक औरतों को कमज़ोर मानने में विज्ञान की व्याख्याओं का प्रयोग किया जाता रहा है। एक वैज्ञानिक चाहे वह भौतिक विज्ञान का ही विशेषज्ञ क्यों न हो, जब तक अपने शोध के पीछे के पूर्वाग्रह नहीं समझ पाता, तब तक वह असल में अपने अंदर भरे नस्लवादी, लिंगभेद वादी विचारों का वाहक ही बना रहता है। इसका एक अन्य उदाहरण हम भारत में आयी हरित क्रांति में देख सकते हैं। हमने भूख की एक सामाजिक समस्या को तकनीक से सुलझाने की कोशिश की और नतीजा आपके सामने है। विज्ञान की राजनीति क्या करती है वह हमें यूनियन कार्बाइड के इन पोस्टरों में दिखाई देता है। तकनीक ने हमें विनाश के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया। 1984 में भोपाल में जो हुआ और जो अभी तक किसानों की कीटनशक पीकर आत्महत्या करने के अनवरत सिलसिले में हमें आज तक दिखाई देता है, वह उस विनाश की ही परिणति है।
भारत का लगभग 25% भूभाग सामुदायिक उपयोग में लिया जाता है, सरकारी कब्जे के बावजूद। और यह क्षेत्र ही भारत की अनगनित समस्याओं का रामबाण है। देश की 35 करोड़ सबसे गरीब और वंचित जनता इन्ही जंगलों, चरागाहों, नदियों, तालाबों और नालों पर निर्भर है। इस बात पर इसीलिए कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि सामुदायिक संसाधनों शोध और उनके उत्थान में भारत का योगदान बहुत अधिक है। हमारे सैकड़ों गाँव हज़ारों सालों से ट्रेजेडी ऑफ़ कॉमन्स के विचार को धता बता रहे हैं। 2011 में न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू की अध्यक्षता वाली एक खंडपीठ ने सभी राज्यों को निर्देश दिया था कि वह सामुदायिक संसाधनों को सहेजें और अतिक्रमण से बचाएँ। पर अफ़सोस कि उस पर अभी तक कुछ ख़ास कार्यवाही नहीं हुयी।
अब आगे क्या
दरअसल कॉमन्स समुदायों से हैं। जब लोग एक-दूसरे से जुड़ने की कोशिश में जुटते हैं, तब वह समुदाय (कम्युनिटी) बनते हैं। हार्डिन के विचारों ने समुदायों को ख़त्म करने में एक बड़ी भूमिका अदा की है। इसके बावजूद कॉमन्स या शामलात का विचार, अपने अंदर विविधता को समोने वाले उन महान मोज़ेक विचारों में से है जो हज़ारों सालों का सफर तय करने के बाद भी हम से मुखातिब है। फैसला हमारे हाथ में है। हम चाहें तो वापस अपने समुदायों की रचना करें और इस धरती को आने वाली कई बड़ी समस्यों से बचाएँ।
Zindabad
ReplyDelete