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89 का बचपन- चंद्रलोक की खोज

फोटो पुस्तकमहल से साभार हुआ यूँ कि हमें शौक हुआ चिल्ड्रन नॉलेज बैंक पढ़ने का।  पुस्तक महल का चिल्ड्रन नॉलेज बैंक। तीसरे, चौथे दर्जे से ही उसे पढ़ने लगा था। उसे पढ़कर ऐसा लगता था कि हम विज्ञान और सोच के पैमाने पर सबसे कहीं आगे निकल गए हैं । हमें पता था कि- क्या ऐतिहासिक दौड़ाक नूरमी कभी तेल चलाता था? क्या ध्यानसिंह की हॉकी में चुम्बक लगा रहता था? पृथ्वी गोल क्यों है और ये कैसे पैदा हुई ? रात में तारे चमकते क्यों हैं ? क्या कुछ लोग आदमखोर हो सकते हैं? क्या मोनालिसा सचमुच मुस्कुरा रही है? पिसा की झुकी हुयी मीनार गिरती क्यों नहीं ?  दुनिया का सबसे बड़ा ऑफिस कौनसा है ? और न जाने कैसे कैसे मज़ेदार शीर्षक होते थे और उनके गहरे जवाब। कई सारे तो मैंने कई बार पढ़े उस वक़्त। जैसे चौथी कक्षा में हमें पता था कि पिसा की मीनार इसलिए नहीं गिरती कि क्योंकि उसका गुरुत्वाकर्षण केंद्र  (centre of gravity )उसके अंदर ही है। जिस दिन वह उस से बाहर निकलेगा, वह गिर जायेगी। बाद में ग्यारहवीं में आकर समझ आया कि गुरुत्वाकर्षण केंद्र होता क्या है।पर वह शब्द मेरे शब्दकोष में चौथी में ही आ गया था। मुझे लगता है मैंने चिल्ड्रन

89 का बचपन- पठान की आँखें

तस्वीर- ANI से मुरादाबाद के एक पीतलक के कारीगर की  बहुत खूबसूरत दिन था वो! आखिरी इम्तिहान का दिन! मैंने बड़ी मेहनत की थी। पूरे इम्तिहान के दौरान रात को 11 बजे सोता था, 5 बजे जागता था। पांचवी क्लास के बच्चे के लिए इतना बहुत था। सुबह सुबह उठ के सबक दोहराना, नहाना-धोना, भगवान के सामने माथा टेकना, और फिर स्कूल जाना। स्कूल बस  में भी किताब निकाल कर दोहराना बड़ा लगन का काम था।  इम्तिहान ख़त्म होने के बाद के बहुत से प्लान थे।  जैसे फटाफट, पास वाली दुकान से ढेर सारी कॉमिक्स किराए पर लानी थी। बुआ जी के घर जाकर बहनों के साथ खेलना था। वगैरह वगैरह। हसनपुर भी जाना था। मुरादाबाद में तो मैं अकेला था चाचा के पास। हालाँकि उस समय इम्तिहान की वजह से मम्मी पापा मुरादाबाद में ही थे। वहाँ के चामुंडा मंदिर और शिवालय की बहुत याद आती थी।  खैर! इम्तिहान देने के बाद स्कूल से ही छुट्टी का जलसा शुरू हो चुका था। सब बच्चों के चेहरों पर ऐसी ख़ुशी थी जैसे सब जेल से छूटे हों। आखिरी दिन पर फैज़ल, शहज़ाद, अमित और मैं अपने पेपर नहीं मिला रहे थे। बस, हम सब बहुत खुश थे। कूद रहे थे। एक दूसरे को छेड़ रहे थे।आया बी भी कुछ ज़्यादा ही छ

89 का बचपन - मेरे बाबा

बहुत सोच  विचार के बाद अब लिखना शुरू किया हूँ अपने बचपन के बारे में। बहुत से अनुभव  संजोना अब बहुत जरूरी सा महसूस हो रहा है। शायद किसी को इस से बहुत फर्क न पड़े पर अगर एक को भी पड़ता है तो मुझे मलाल नहीं रहेगा कि  मैं उस तक पहुंचा नहीं। किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों !! मेरे बाबा ये नज़्म सुनाते रहते थे। जो पत्थर पे पानी पड़े मुत्तसिल। "मुक्कासिल?" मैं बोलता था।  और वो  बोलते थे, "उंहू, मुत्तसिल बोलो, मुत्तसिल" !! "अच्छा!!", मैं बोलता था। और फिर शुरू!! जो पत्थर पे पानी पड़े मुत्तसिल तो घिस जाए बेशुबाह पत्थर की सिल रहोगे अगर तुम युहीं मुत्तसिल तो एक दिन नतीजा भी जायेगा मिल किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों ! किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों! गर ताक़ में तुमने रख दी क़िताब तो क्या दोगे तुम इम्तिहाँ में जवाब न पढ़ने से बेहतर है पढ़ना जनाब आखिर हो जाओगे एक दिन कामयाब  किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों ! किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों ! "ये नज़्म हमने तीसरी जमात में याद करी थी। अब भी याद है !!" जब भी बाबा ये नज़्म दोहराते थे तो यह जताते जरूर थे कि उनकी य