Skip to main content

89 का बचपन - मेरे बाबा


बहुत सोच  विचार के बाद अब लिखना शुरू किया हूँ अपने बचपन के बारे में। बहुत से अनुभव  संजोना अब बहुत जरूरी सा महसूस हो रहा है। शायद किसी को इस से बहुत फर्क न पड़े पर अगर एक को भी पड़ता है तो मुझे मलाल नहीं रहेगा कि  मैं उस तक पहुंचा नहीं।

किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों !! मेरे बाबा ये नज़्म सुनाते रहते थे।

जो पत्थर पे पानी पड़े मुत्तसिल।
"मुक्कासिल?" मैं बोलता था।  और वो  बोलते थे, "उंहू, मुत्तसिल बोलो, मुत्तसिल" !!

"अच्छा!!", मैं बोलता था। और फिर शुरू!!

जो पत्थर पे पानी पड़े मुत्तसिल
तो घिस जाए बेशुबाह पत्थर की सिल
रहोगे अगर तुम युहीं मुत्तसिल
तो एक दिन नतीजा भी जायेगा मिल

किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों !
किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों!

गर ताक़ में तुमने रख दी क़िताब
तो क्या दोगे तुम इम्तिहाँ में जवाब
न पढ़ने से बेहतर है पढ़ना जनाब
आखिर हो जाओगे एक दिन कामयाब

 किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों !
किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों !

"ये नज़्म हमने तीसरी जमात में याद करी थी। अब भी याद है !!"

जब भी बाबा ये नज़्म दोहराते थे तो यह जताते जरूर थे कि उनकी याददाश्त कितनी अच्छी है। और उनके मौलवी साहब ने बड़े जतन से ये नज़्म उन्हें याद कराई थी।

ये बड़ा मुश्किल था क्यूंकि ये नज़्म एग्जाम या टेस्ट से पहले  दिन की तैयारी के सिलेबस में शामिल थी। हमें कोई इल्म नहीं था के बाबा ने  इस्माइल मेरठी को हमारे कोर्स में शामिल कर  दिया है। झूठ न बोलूंगा।  अभी ये अफसाना लिखते लिखते ही पता चला इस  बात का। मैंने ये नज़्म अभी तक नहीं पढ़ी तो कह  नहीं सकता कि बाबा को ठीक ठीक याद थी के नहीं। खैर!! हम सब बच्चों के लिए तो यह बाबा की नसीहत की नज़्म थी और  उसे याद करना मतलब उन्हें खुश करना। बाबा की एक और नसीहत थी।  वे कहते थे कि "अशुद्ध अल्फ़ाज़" नहीं बोलने चाहिए। जब बोलते समय व्याकरण गड़बड़ाता था तो उस वक़्त की ये नसीहत थी।

तो नज़्म के बहाने हमें पढाई करने को कहा जा रहा है। वाजिब बात है। अच्छे बच्चे पढाई करते हैं। और हम बचपन में जितना  पढ़े,शायद बड़े होकर उतना नहीं पढ़े। क्यूंकि बड़े होते-होते तो इस्माइल मेरठी मुसलमान हो गए थे। और हमने इस नज़्म को भूलना शुरू कर दिया था। खैर!!

बाबा से जुडी दूसरी याद है उनका शतरंज का जुनून।

घर के सारे बड़े दोपहर के खाने के वक़्त शतरंज की बाजी पर जुट जाते थे। और घंटों एक ही बाज़ी पर लाइव कमेंटरी चलती रहती थी। "अरे तैश में क्यों आ रहा है ?" कोई उम्र में छोटे नौसीखिए को सलाह देता था। कोई रुख को बचाने की सलाह देता था तो कोई वज़ीर की दुहाई देता था। घर की औरतें इस सब के दौरान थोड़ी देर के लिए सुस्ता लेती थीं। और रात को बाबा के दोस्त आते थे शतरंज खेलने के लिए।

हमें ठीक से नहीं पता पर शायद कोई खां साहब थे।  शतरंज के ज़बरदस्त खिलाड़ी थे।  हम जैसे बच्चों की एंट्री इस बाज़ी में नहीं थी। इसमें घोर शांति चाहिए थी इसलिए बच्चों का प्रबेश लगभग निषेध था। बाबा अधिकतर उनसे हार जाया करते थे। इसलिए कई बार शायद चिढ भी  जाते थे। कुछ साल बाद खां साहब का तो आना ही बंद हो गया। इसकी वजह मुझे याद नहीं। बस इतना याद है के माहौल क्रिकेट के मैच से कम नहीं होता था शतरंज की बाजी में। मैंने बाबा के साथ बहुत शतरंज खेला। जब हमारे घर आ जाते थे तब तो छह छह घंटे तक खेला। कई सालों तक तो वह जीतते रहे फिर शायद दसवीं ग्यारहवीं तक मैं उन्हें हारने लगा था।

बाबा को प्याज से सख्त चिढ थी।  नाम सुनते ही बिदक जाते थे। "हुँ !! मुसलमान खावैं प्याज। तू मुसलमान बनेगा। तेरी शादी मुसलमानी से करा देंगे।" ये बहुत बड़ी धमकी थी।  साथ में अगर किसी बच्चे ने जुबांदराज़ी कर दी तो फिर देखो। बाबा के गुस्से का पारावार नहीं रहता था। प्याज़ सिर्फ एक सब्ज़ी होती है, ये बाबा मानने को तैयार ही न थे। लिहाज़ा घर में  छुप के प्याज लायी जाती थी। और मम्मी छोले भठूरे के साथ प्याज खाने के बाद हमें ब्रश कराती थीं ताकि उसकी बास न आ जाए किसी को। प्याज खाना एक क्रन्तिकारी कदम था। एकदम एंटी-नेशनल टाइप था।

हम बाबा की डिस्पेंसरी जाया करते थे शाम को, उन्हें चाय देने के लिए। हसनपुर के बीच बाजार में उनकी डिस्पेंसरी थी। बाबा के दो काम थे। होमियोपैथी की दवाई देना, और जब हम बच्चे पहुँच जाएँ तो सब्ज़ी लाना। जब सब्ज़ी लेने जाते थे तो मैं उनकी किताबें टटोलता था। अधिकतर किताबें उर्दू या फ़ारसी में होती थीं। पुराने पीले पन्नों के पोथे। कभी हम उन्हें पढ़ नहीं पाए। हमने उन्हें पढ़ने की ज़रुरत नहीं समझी। बस देख कर ऐसा लगता था जैसे कोई तिलिस्मी किताब देख रहे हों जिसमें किसी ख़ज़ाने का राज़ छुपा हुआ है। काश कभी उन्हें पढ़ पाते। हमें पता था कि उन पन्नों में बहुत से नुस्खे और दवाइयाँ लिखी हैं। गांव के बहुत से हिन्दू-मुसलमान लोग जो अब वहां के नामी गिरामी लोगों में शुमार थे, सब बाबा की होमियोपैथी की मीठी गोलियां खाये थे बचपन में।

बाबा की सीख ज़िंदा है हम सभी में। वह मीठी गोली की मिठास आज भी ज़ुबान पर आ जाती है। शतरंज का शौक आज भी थोड़ा बहुत बचा है। प्याज खाना तो कभी नहीं छूटा पर जब भी खाता हूँ, उनकी उलझन याद हो आती है। और इस्माइल मेरठी की नज़्म तो आजकल बच्चों को भी सिखा रहा हूँ। हम तब भी पूरे इंसान नहीं थे। हिन्दू और मुसलमान थे। बाबा ये बात जानते हों या नहीं  पर वो तो बचपन से हमारे संस्कारों में हिन्दू और मुसलमान दोनों को जगह दे रहे थे। मुसलमान हमारे घरों में थे, शतरंज की बाजियों में, नज़्मों में, प्याज में, किताबों में। वो उनकी नसीहतों में भी थे।वे हमारे घरों में थे और हम उनके। न जाने कब, या शायद बाबा के साथ ही  वो भी चले गए। और हम अकेले हो गए।


Comments

  1. अच्छा किया आपने स्मृतियों को बिसरने से पहले ही उन्हें पन्नों पर उतारना शुरू कर दिया। बाबा को आपने हमसे भी मिला दिया इसी बहाने जो शायद ऐसे संभव न होता !

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद मणिकांत 

      Delete
  2. quite affecting... both the text and the context

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया  प्रबीर भाई 

      Delete
  3. बहुत उम्दा भाई। आंखें नम हो गई और दिल शांत। किये जाओ कोशिश ❤️

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया मनु भाई 

      Delete
  4. बचपन के अनुभव। बहुत उम्दा।

    किये जाओ कोशिश मेरे दोस्त !

    ReplyDelete
  5. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  6. बंधु, इस नेरेशन मे भारत का एक बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण विरोधाभास छुपा हुआ है, हम अक्सर ही इसे नजरंदाज करते हैं। एक मुसलमान दोस्त से निबाहते हुए भी मुसलमान बना देने की धमकी संस्कृति से जुड़ी संवेदनशीलता और बदलती नैतिकता के नए मायने समझाती है

    इसे लिखने और साझा करने के लिए शुक्रिया भाई

    ReplyDelete
  7. It is very interesting and indeed if you do not pen it down it will be a lost context. I wonder if the generation which was born after 2000 would be able to relate to this at all. It's a lost world...

    ReplyDelete
    Replies
    1. thanks..will build on this..in coming future

      Delete
  8. बहुत सुन्दर !
    दरअसल हमारे, मेरे, बचपन में हिन्दू-मुसलमान बाकायदा अपनी-अपनी सीमाओं, क्षमताओं के साथ शामिल थे। जैसा तुमने भी लिखा है, एक-दूसरे के घरों में थे। धीरे-धीरे दोनों एक-दूसरे के घर और फिर दिल से निकलते गए और नतीजा हम देख ही रहे हैं।
    तुम लिखने के इस सिलसिले को बरकरार रखो। मेरी दुआएं, तुम्हारे साथ हैं !!
    क्या पता, कोई सिरफिरा पहले घर और फिर दिल में ताकाझांकी करने लगे !!!

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

गायब होते जुगनू

फोटो इंडियन एक्सप्रेस से  आखिरी बार अपने जुगनू कब देखा था ?  अब ये न कहियेगा कि परवीन शाकिर की ग़ज़ल में देखा था।  "जुगनू को दिन के वक़्त परखने की ज़िद करें  बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए " बचपन में हमारे घरों में घुस जाते थे जुगनू। रात को बत्ती जाते ही दिखने शुरू हो जाते थे। दिप दिप उनकी रौशनी में कब वो वक़्त कट जाता था, पता  ही नहीं चलता था। मेरी उम्र के लोगों ने तो ज़रूर अपने बचपन में जुगनू देखे होंगे।  सैकड़ों, हज़ारों एक ही पेड़ पर। तब ज़िन्दगी में जुगनुओं की बड़ी जगह थी। बत्ती तो आती जाती रहती थी। पर जुगनू चमकते रहते थे। फिर कुछ लोग उन्हें देख कर कविता कहानी  लिखते थे और कुछ  बस उन्हें देखते थे। घंटों। फिर जैसे ही बत्ती आयी तो सारे बच्चे चिल्लाते थे "लाइट आ गयी... और सब घर के अंदर। कभी कभी कोई जुगनू घर के अंदर भी आ जाता था। वो उन कुछ कीड़ों में से थे  जिनसे बच्चे डरते नहीं थे। बल्कि खेलते थे।  मुझे नहीं लगता के मेरे बच्चे सहज भाव से जुगनू को कभी छू पाएंगे। उनकी उम्र के सभी बच्चे शायद जुगनुओं के झुण्ड को देखकर डर जाएं क्यूं...

प्रेम की राजनीति

इस आलेख की विषयवस्तु 2011 में बनी हॉलीवुड फिल्म "पॉलिटिक्स ऑफ़ लव" नहीं है जिसकी कहानी एक डेमोक्रेट पार्टी समर्थक और एक रिपब्लिकन पार्टी समर्थक पुरुष और स्त्री के बीच प्रेम की गुंजाइश को तलाशती महसूस होती है।  मालूम हो कि भारतीय अभिनेत्री मल्लिका शेरावत ने उसमें एक अहम् किरदार निभाया था। मैं मई 2023 में मृणाल पण्डे जी के द वायर में छपे " Why We Need to Embrace a Politics of Love" नामक लेख के बारे में भी बात नहीं कर रहा जिसमें उन्होंने राहुल गाँधी द्वारा प्रधानमंत्री को संसद में गले लगाने के उपक्रम पर टिपण्णी की थी।  ये विचार जो मैं यहाँ बांटना चाहता हूँ वो हमारे चारों ओर बढ़ती हिंसा और उसके मेरे और मेरे आसपास के लोगों के  अंतर्मन पर लगातार पड़ने वाले असर का परिणाम है।  कोई दिन ऐसा बीतता नहीं जब कोई ऐसी बात न होती हो जिससे मन में तेज़ नफरत न फूटती हो।  पर क्या करें। कुछ न कर पाने की विवशता से निकला हुआ लेख है ये। एक व्यथित मन की किंकर्तव्यविमूढ़ता का अपराधबोध।   मुझे यकीन है कि जो मैं लिख रहा हूँ वह कोई मौलिक विचार नहीं है। मुझे तो अम्बेडकर के प्रसिद्द लेख ...

89 का बचपन- पठान की आँखें

तस्वीर- ANI से मुरादाबाद के एक पीतलक के कारीगर की  बहुत खूबसूरत दिन था वो! आखिरी इम्तिहान का दिन! मैंने बड़ी मेहनत की थी। पूरे इम्तिहान के दौरान रात को 11 बजे सोता था, 5 बजे जागता था। पांचवी क्लास के बच्चे के लिए इतना बहुत था। सुबह सुबह उठ के सबक दोहराना, नहाना-धोना, भगवान के सामने माथा टेकना, और फिर स्कूल जाना। स्कूल बस  में भी किताब निकाल कर दोहराना बड़ा लगन का काम था।  इम्तिहान ख़त्म होने के बाद के बहुत से प्लान थे।  जैसे फटाफट, पास वाली दुकान से ढेर सारी कॉमिक्स किराए पर लानी थी। बुआ जी के घर जाकर बहनों के साथ खेलना था। वगैरह वगैरह। हसनपुर भी जाना था। मुरादाबाद में तो मैं अकेला था चाचा के पास। हालाँकि उस समय इम्तिहान की वजह से मम्मी पापा मुरादाबाद में ही थे। वहाँ के चामुंडा मंदिर और शिवालय की बहुत याद आती थी।  खैर! इम्तिहान देने के बाद स्कूल से ही छुट्टी का जलसा शुरू हो चुका था। सब बच्चों के चेहरों पर ऐसी ख़ुशी थी जैसे सब जेल से छूटे हों। आखिरी दिन पर फैज़ल, शहज़ाद, अमित और मैं अपने पेपर नहीं मिला रहे थे। बस, हम सब बहुत खुश थे। कूद रहे थे। एक दूसरे ...