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उत्तर विकासवाद क्या है - कड़ी-1

मंडला में देशी मक्के की किस्में-कुछ दिनों में शायद बीते कल की बात बन जाएँ 
कुछ समय पहले मेरे एक  दोस्त ने जोकि मेरी तरह एक गैर सरकारी संस्था में ग्रामीण विकास के लिए कार्य करता है, एक दिलचस्प किस्सा सुनाया। 

उसने बताया के वह एक अजीब अनुभव से गुज़र रहा है। मेरा दोस्त बहुत समय से मंडला के एक गाँव में किसी परिवार के साथ मचान खेती पर काम कर रहा था। मचान खेती सघन खेती का एक मॉडल है जिसमें एक समय में एक जमीन के टुकड़े से कई फसलें ली जाती हैं, कुछ जमीन पर और कुछ जमीन से उठ कर मचान पर, बेलें चढ़ाकर । जिस परिवार को उसने प्रेरित किया, उसने पहले साल ज़बरदस्त मेहनत की और बड़ा मुनाफा कमाया। दूसरे साल भी परिवार के साथ वो काम करता रहा। और नतीजा फिर बढ़िया निकला।  तीसरे साल उसने सोचा के परिवार अब तो खुद ही मचान खेती कर लेगा। बरसात के आखिरी दिनों में मेरा दोस्त उस परिवार से मिलने गया। वहां जो उसने देखा, उससे वो भौंचक्का रह गया। उसने देखा की मचान खेती नदारद थी। उसकी जगह पारम्परिक खेती ले चुकी थी।

 उसने घर के महिला से पूछा-

 "काय दीदी, इस बार मचान नहीं लगाए ?"

दीदी बोली -

"इस बार आप बताने आये ही नहीं भैया !" 

मेरे दोस्त को बड़ा दुःख हुआ। दो साल की मेहनत पर पानी फिर गया ! उसने मुझसे कहा के ये उसे समझ में नहीं आया के ऐसा क्यों हुआ। 

ऐसा अनुभव रखने वाला मेरा दोस्त कोई अकेला व्यक्ति नहीं है। एक किताब है "Castes and tribes of Central Provinces of  India " । भारत पर ब्रिटिश शासन के दौरान एक ब्रिटिश अफसर आर वी रसेल ने ये किताब 1916 में लिखी थी। उसने उस समय बैगाओं के साथ हो रहे प्रयोगों के हश्र का कुछ ऐसा ही ज़िक्र किया है। बैगा आदिवासी जो उस समय तक विजन वन के बीच, बेवर खेती या एक प्रकार की झूम खेती करते थे, उनको अंग्रेज़ों ने जमीन दी, उनको गाय दी पालने को, यहाँ तक की खेती भी सरकारी खर्चे पे करवाई पर बैगाओं ने अपनी वनवासी जीवन शैली बदली नहीं। आज भी तमामतर ग्रामीण विकास कार्यकर्ता किसी न किसी रूप में अंग्रेज़ों की तरह आदिवासियों को अपनी जीवन शैली में बदलाव लाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं । 

ये सब क्या सही है ? ये किसका विकास है? और किसके लिए है? इस विकास का पैमाना क्या है? क्यों है ऐसा पैमाना। 

सरकार ने बैगा आदिवासियों के लिए एक विशेष निधि शुरू की है, जोकि कमोबेश ऐसी ही योजनाओं से लैस है जिनकी उनकी जीवन शैली में कोई जगह नहीं। पर जिसकी उन्हें सबसे ज्यादा ज़रुरत है, यानी जंगल, उसमें हम उन्हें जाने नहीं दे रहे। इसका नतीजा क्या है? यदि अध्ययन हो तो  पता चलेगा के मंडला -डिंडोरी या बालाघाट के आदिवासी इलाकों में सबसे ज्यादा लोग जो जेल में बंद हैं, वो अधिकतर बैगा हैं और छोटे छोटे वन अपराधों के सिलसिले में सलाखों के पीछे पहुँच गए हैं। हमारे विकास के विचार में उनकी जीवन शैली की कोई जगह नहीं। बल्कि हमने उसे गैर कानूनी घोषित कर रखा है। सैंकड़ों बैगा अपनी ही धरती में आज खेतिहर मज़दूर हैं। 

विकास के शब्दकोष में "Aspirations" शब्द का बड़ा महत्त्व है।  हिंदी में बोलें तो आकांक्षाएं। सुनते ही ग़ालिब का शेर याद आता है- "हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले". आगे ग़ालिब कहते हैं के ये अरमान कभी पूरे नहीं होते। कहा जाता है के लोगों के aspirations हैं जो सिर्फ पैसे से पूरी की जा  सकती हैं। उन्हें  ज्यादा नगद पैसा कमाना चाहिए। और हमें   ऐसी योजना बनानी चाहिए जिससे उनकी आय बढे। इस सिलसिले में हम उनसे क्या क्या चीज़ की बलि ले लेते हैं?- उनकी परंपरागत कौशल की, उनके परंपरागत ज्ञान की, कई बार उनके समय की और सबसे बड़ी बलि लेते हैं हम उनके प्राकृतिक संसाधनों की जिसकी कीमत ही हमारे "कॉस्ट-बेनिफिट विश्लेषण " में आती ही नहीं। ये सब गंवा के मान लीजिये उन्होंने पैसा कमा भी लिया तो कई नयी व्याधियाँ उन्हें घेर लेती हैं, चूँकि इस नए संसाधन का सदुपयोग उनकी परंपरा में नहीं है। वैसे, मुझे समझ में नहीं आता, किसकी परंपरा में पैसे का सदुपयोग है। अम्बानी जी की परंपरा में होता तो उनके परिवार में ४०० करोड़ की शादी न हुयी होती। कुल मिला के हम उनके संसाधनों को कम करते जा रहे हैं। और छोटी छोटी सफलताएं दिखाकर मोटी  बात से बच रहे हैं। 

विकास की आकांक्षाओं और भौतिकवादी सोच से जो प्रयोग निकल रहे हैं, उनके परिणाम भयानक हैं। इस सोच से प्रेरित कार्यकर्ताओं को यह पता ही नहीं चलता के वे गलती कहाँ कर रहे हैं। इस तरह के विकास से यूनियन कार्बाइड जैसे दानव निकलते हैं, बड़े बड़े बाँध निकलते हैं और चरागाहों की जगह खेत बना दिए जाते हैं। 

इसी बात को उत्तर विकासवादी विद्वान् कहना चाह रहे हैं और अलग अलग तरह से व्यक्त कर रहे हैं। मुख्य बात यह है कि उत्तर विकास वादी "विकास" की पश्चिमी अवधारणा जो पश्चिम को विकसित और पूर्व को विकासशील कहती है, उसका खंडन करते हैं। उनका मानना है के विकास की अवधारणा औपनिवेशिक काल की मानसिकता की द्योतक है, जिसमें पश्चिम के मूल्यों और संस्कृति को पूर्व से ज्यादा तरजीह दी गयी है। वे पूँजी को विकास के केंद्र में नहीं मानते। वे विकास की समझ स्थानीय समुदाय के साथ बनाने के तरीके ढूंढते हैं। 

कई लोग मानते हैं कि उत्तर विकासवादी  असल में अविकसित समाजों को संग्रहालय की वस्तु बनाना चाहते हैं। उत्तर विकासवाद के आलोचक यह भी आरोप लगाते हैं के उत्तर विकासवादियों को इन समाजों में हो रहा अन्याय नहीं दिखाई देता। इस आलोचना में मेरी समझ से महात्मा गाँधी जैसे चिंतक भी आ जायेंगे। मेरी समझ में यह आलोचना बहुत सतही है। और उत्तर विकासवाद अपनी आलोचना से और उन्नत हो रहा है। 

टीप-

मैं इस पर और आगे लिखता रहूंगा। पाठकों से आग्रह है के मुझे विचार रखने वाला साधारण मनुष्य समझे। कड़े सवाल पूछें। उससे मेरी समझ बढ़ेगी और आपसे आत्मीयता भी। और अगली कड़ी में मैं बेहतर लिख पाऊंगा। और इस तरह हम साथ में सीखेंगे। 

और सब्सक्राइब बटन दबाना न भूलें। 



Comments

  1. Ishan I read your post with interest . Thanks for the update .... however, perhaps , I did understand why the farmer said that machan kheti was not practiced because your friend did not turn up .... ? The classic debate between what is development and for whom and what cost is of paramount importance and perhaps your writing can through light on these ..... happy writing brother ..... someday would like to come and visit you .....

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    1. will be super happy to host you raju da..will keep writing..

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  2. I got read your blog with interest . you write very well.Here you have explained us uttarvikasvad with the good example.

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    1. post development in english..you can learn about it on internet

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  3. Hi Ishan. This is really nice piece of work. If you have written this kind of article earlier as well. Then pls update me.

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    1. Hi, sorry, your name is not visible here. Can you please reveal your identity?

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  4. Ishaan Bhai, kaale kaale mukhdon pe kaala kaala chasma laga hua hai aur duniya keh rahi hai fair and lovely ki Jai (no skin colour pun intended). Hum jis vaqt mein hain wahan sahi aur galat bus dande aur paise ke ghulaam Hain. Samajh mein nahi aata ki industry/corporations insaan ke faayade ke liye thi ya insaan unke faayde ki liye Hain. Desh banks ko bacha rahe Hain aur banks desh ko barbaad kar rahe Hain. Duniya insaaniyat par nahi profit maximization par chal rahi hai.

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    1. thoda thoda khud ko aur thoda thoda paas pados ko badalna hoga.

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