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गफाम (GAFAM) और आवाम

 


गफाम !

हमारे शब्दकोष में जुड़ता ये सबसे नया शब्द है। माने गूगल, एप्पल, फेसबुक, अमेज़ॉन और माइक्रोसॉफ्ट। ये वो कंपनियां हैं, जो आज हमारे पूरे युग को परिभाषित करती हैं। आज का युग ! कत्रिम बुद्धिमत्ता (artificial intelligence ), कत्रिम यथार्थ (virtual reality) का युग! जहाँ, सारा ज्ञान गूगल बाबा के पास है, "अपनों के बीच जाने के लिए" हमें फेसबुक, व्हाट्सएप्प का सहारा चाहिए, अमेज़न, जिसे आपने कभी देखा नहीं, वो "आपकी अपनी दुकान" है, एप्पल पूरी दुनिया में धनाढ्य वर्ग का स्टेटस सिंबल है और माइक्रोसॉफ्ट के बिना दुनिया के आधे से ज्यादा कंप्यूटर आप नहीं चला सकते। 

आज जब इन कंपनियों को लेकर आम चर्चा हो रही है, ख़ास तौर पर फेसबुक को लेकर हालिया विवाद को लेकर, हमें यह समझना चाहिए कि ये कंपनियां क्या बन चुकी हैं।आपको जानकारी होगी ही कि फेसबुक पर भारत में धार्मिक उन्माद फ़ैलाने वाले लोगों के  बयान को न रोकने के लिए आरोप लग रहे हैं। फेसबुक के लिए ये आरोप नए नहीं हैं। दुसरे देशों में भी ऐसे आरोप उसपर लगते रहे हैं, खास तौर पर अमेरिका में। ये आरोप हमारी ज़िन्दगियों में इन कंपनियों के दखल की बानगी भर है। असल में आज, इस दुनिया का हर शख्स जिसके पास या तो मोबाइल फ़ोन है या कंप्यूटर है और यदि उसका बाहरी दुनिया से जो भी थोड़ा या बहुत संपर्क है, तो वह इन कंपनियों की मदद लिए बिना नहीं रह सकता। 

चेहरा-विहीन अपराधी 

 प्रश्न यह है कि गफाम का जंजाल हमें किसी नयी गुलामी की ओर तो नहीं खींच ले जा रहा है।इस नयी गुलामी के कई नए आयाम हैं। हमें पता ही नहीं कि हम गुलाम हुए जा रहे हैं। दुनिया की एक नक़ली तस्वीर हमारे सामने  है और हम सब उसी पर विश्वास करते हुए आगे बढे जा रहे हैं। ये ऐसी गुलामी है जिसमें मालिक कौन है, यह नहीं पता चलता है क्योंकि हमारे सामने कोई बॉलीवुड का ठाकुर या डाकू मंगल सिंह या सूदखोर बनिया टाइप कोई विलेन नहीं है। ये सब कारपोरेशन हैं, एक लीगल व्यक्तित्व, बिना किसी मानवीय चेहरे के। मानवीय चेहरे के न होने के कारण इन्हें इनके अपराधों की सजा देना बड़ा मुश्किल है। जिस तरह के अपराधों के लिए यह कंपनियां दोषी मानी जाती रही हैं, वह यदि एक इंसान पर लगाए गए होते तो शायद उस इंसान को उम्रकैद या फांसी हो जाती। उदहारण के लिए फेसबुक पर लगे आरोपों को लेते हैं। इस पर आरोप हैं धार्मिक भावनाओं को भड़काना, महिलाओं के ऑनलाइन यौन शोषण का कारण बनना, अपने प्रतिद्वंदियों को किसी भी तरह अपने रास्ते से हटाना, लोगों के जीवन की अंतरंग जानकारियां बेचना इत्यादि इत्यादि। मान लीजिये ये सारे आरोप अगर किसी एक आदमी पर होते    तो ! मैं शर्तिया ये कह सकता हूँ या तो वो आदमी सलाखों के पीछे होता या अगर कानून अपना काम नहीं कर रहा होता तो वह समाज में बेहद बदनाम हो जाता। पर इसके विपरीत फेसबुक तो दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की   पर है। यही बात गूगल के लिए भी कही जा सकती है। माइक्रोसॉफ्ट पर सॉफ्टवेयर उद्योग पर  एकाधिकार करने का आरोप है। माइक्रोसॉफ्ट हर दूसरे-तीसरे साल में नया वर्ज़न लाता है विंडोज का और आप और हम को वह खरीदना ही पड़ता है। अमेज़ॉन अपने कामगारों के प्रति बर्ताव को लेकर, डेटा चोरी को लेकर अपनी नीति में पारदर्शिता न रखना इत्यादि। 

हमारे देश में जहाँ गरीब अमीर की खाई और चौड़ी  होती जा रही है, वहां ऐसी कंपनियां क्या कर सकती हैं, हमें इसका अंदाज़ा तक नहीं है। इसके विपरीत हमारे पूंजीपतियों ने अपने रिश्ते इनसे मज़बूत कर लिए हैं। रिलायंस और गूगल  के अलावा रिलायंस और फेसबुक के बीच हुए हालिया समझौते इसकी ओर इशारा करते हैं। 

अर्श और फर्श के बीच का फ़र्क़ 

क्या आप अंदाज़ा कर सकते हैं के एप्पल का कुल बाजार मूल्य कितना है ? क्या आपको अंदाज़ा है कि इन कंपनियों पर covid -19 का क्या असर हुआ? statista.com पर मिले इन कंपनियों के 2020 की पहली छमाही के कुल कारोबार को दर्शाते हुए इस ग्राफ़िक पर  नज़र  डालते हैं -

 

अव्वल तो ये कंपनियां ऐसे समय में भी अपना कारोबार बढ़ा पा रही हैं, और साथ ही साथ इनका अपार कारोबार कई देशों के कुल जीडीपी से भी ज्यादा होगा। हमारी समझ से 2020  की पहली छमाही में, ये कंपनियां करीब 34.5 लाख करोड़ रूपए के बराबर कारोबार कर चुकी हैं। यह दुनिया के 189 देशों में से 165 देशों की 2019-20 की जीडीपी से ज़्यादा है। अब आते हैं इनकी कुल कीमत पर। statista.com के दिसंबर 2019 के आंकड़े के अनुसार इनका बाजार पूँजीकरण हो गया था कुल 4.7 ट्रिलियन डॉलर यानी 347 लाख करोड़ रूपए के आसपास। यानी हमारे देश की कुल जीडीपी से करीब दोगुना !! इन कंपनियों के आकार का अंदाज़ा एक दूसरे तरीके से लगाया जा सकता है। हमारे देश की सबसे बड़ी कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज गफाम  में सबसे छोटी कंपनी फेसबुक से भी आधी कीमत रखती है। आधी !! इन कंपनियों के दर का ये आलम है कि फेसबुक अपने बराबर पहुँचती हुयी हर कंपनी को खरीद लेती है। आपको पता है, कि व्हाट्सप्प, इंस्टाग्राम भी फेसबुक के ही हिस्से हैं ? उसने पहले ही भांप लिया था कि ये कंपनियां उसपर असर डाल सकती हैं। 

भारतीय कंपनियां और उनके धंधे गफाम की कंपनियों के सामने बहुत छोटे पड़ जाते हैं। ये कंपनियां राष्ट्राध्यक्षों के फैसलों पर भी  असर डाल सकती हैं और डाल रही हैं। भारत इनके लिए बड़ा बाजार है तो ज़ाहिर है इनके रिश्ते सत्ताधारियों के साथ मधुर ही रहेंगे, चाहे वह कोई भी हो। 

पैसा पैसे को खींचता है 

मेरी पूँजी को लेकर एक सहज समझ बनी है। वह है ये कि पैसे की एक फितरत है। वह कम पैसे वाले से ज़्यादा पैसे वाले के पास पहुँच जाता है। यानी गरीब आदमी से आमिर आदमी की जेब में। तो पैसा किसी न किसी तरह से गरीब देश से अमीर देश के पास, छोटी  कंपनी से बड़ी कंपनी के पास पहुँच जाता है। गफाम तो बहुत बड़ी कंपनी है। हमारी इसके सामने क्या बिसात है ? एक और उदाहरण है बैंकों का। बैंक में जमा करता है आम आदमी, उसे ब्याज कम मिलता है और मज़े उठाता है अमीर जो बैंक को ठग के पैसा लूट का निकल जाता है। अधिकतर तो यह काम कानूनी ढंग से होता है। तो गफाम की ये अथाह आर्थिक ताक़त का हम पर क्या असर होगा, हम बस अंदाज़ा लगा सकते हैं। गूगल हमारी जिंदगी के हर हिस्से में घुस गया है, हमारा  पूरा वज़ूद इस सिस्टम में हमारी पहचान के रूप में दिए गए नंबर से जुड गया है जो हम रोज़ न जाने कितनी बार इंटरनेट पर अलग अलग जगह बताते हैं। इन कंपनियों ने दुनिया के सबसे ताक़तवर लोगों को ग़ज़ब का आत्मविश्वास दे दिया है। कि वह हमें मैनेज कर लेंगे। 

हम मैनेज हो रहे हैं

हमारे रिश्ते, हमारी सोच, हमारी बातें, सब कुछ मैनेज हो रहा है। गूगल हमसे इनफार्मेशन लेकर हमें ही गूगल मैप्स में दिखाता है। ऐसा लगता तो है कि उसने प्लेटफार्म बनाया है तो फायदा भी वही लेगा। पर क्या ऐसा है? वह जानकारी किसकी है? इंटरनेट किसका है ? स्पेक्ट्रम किसका है ? इंटरनेट, स्पेक्ट्रम दोनों पब्लिक प्रॉपर्टी है। कह लीजिये वह ज़मीन है जिस पर बाजार खड़ा है। वह किसी एक कंपनी का नहीं है। सरकार भी उस पर मालिकाना हक़ का दावा नहीं कर सकती। पर करती है। इसे हमें समझना चाहिए। इससे ऊपर यह बात है कि ज्ञान कैसे किसी की बपौती हो जाता है। भले ही वह उसे खोजने वाला ही क्यों न हो, क्या ज्ञान सिर्फ उसी ने पैदा किया ?क्या न्यूटन के सिद्धांतों की खोज में उसके समाज का कोई हाथ न था? इंग्लैंड का, उसके शिक्षकों का, उसके गाँव का? सेब का?हमारे अंदर ये अहंकार आता कहाँ से है जो ये कहता है कि ये मेरा आईडिया है? कोई मुझे बताये कि फलां आईडिया उसका  है तो मैं उससे पूछूंगा कि आपने इस आईडिया को किस भाषा में सोचा? वह भाषा आपको कहाँ से मिली? क्या वह भाषा अपने खोजी थी ?

ज्ञान का बाजार बन गया है। और हम एक दुसरे से सीखने के बजाय गूगल से सीख रहे हैं। फेसबुक पर दोस्त बनाते हैं, असली ज़िन्दगी में नहीं। अमेज़न से सामान खरीदते हैं, बगल के दुकानदार से रिश्ते बनाने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं। हमारा कंप्यूटर और ये कंपनियां हमारी हर तरह की अभिव्यक्ति को अपने में समा लेती हैं। हम इनसे पढ़ते हैं,  सीखते हैं। घर के बुज़ुर्ग अब किसी काम के नहीं रहे। उनका ज्ञान अब व्यर्थ है। 

हम क्या कर सकते हैं?

 सबसे पहले तो अपने रोज़ की दिनचर्या पर नज़र दौड़ाइये, और देखिये उसमें से कितना भाग हम इन कंपनियों को देते हैं और  क्यों। अपने  परिवार और दोस्तों से हम कितने काम निकाल  सकते हैं। क्या हमें वाक़ई इन कंपनियों की उतनी ज़रुरत है ? यदि आपको सर्च इंजन की आवश्यकता है ही तो बहुत से और सर्च इंजन भी हैं। डक डक गो को तो मैं प्रयोग करता हूँ। और भी बहुत से सर्च इंजन हैं जो आपकी सर्च को पूरी तरह निजी रखने का दावा करते हैं।  सिर्फ एक कंपनी का एकाधिकार एक उपभोक्ता के रूप में हम तोड़ सकते हैं। एप्पल न खरीद के डैल खरीदिये, विंडोज न लेकर उबुन्टु सिस्टम खरीदिये। जितनी विविधता होगी, उतनी ये कंपनियां आपकी निजता के प्रति सचेत रहेंगी। फेसबुक तो छोड़ ही दीजिये मेरी माने तो। इंस्टाग्राम और व्हाट्सप्प भी। इन सबके दुसरे विकल्प हैं। इतने बेहतर नहीं हों शायद क्योंकि आपके दोस्त शायद वहां न हों। पर आज़ादी सस्ती तो नहीं है। उसके लिए थोड़ी तो मेहनत करनी  पड़ती है। 

एक दूसरा काम जो हम कर सकते हैं वह है कि इन कंपनियों की जवाबदेही तय करने के लिए इनसे सवाल पूछिए। कड़े  से कड़े सवाल पूछिए, मीडिया के माध्यम से, अपने जन प्रतिनिधियों के माध्यम से। 



Comments

  1. मैं कबीर सम – सामायिक को पढकर जिस तरह समाज एवं देश में चल रही दूरगामी परिणाम जो हमारे देश को गुलामी की ओर ढकेल रहा है तथा विदेशी बड़े-बड़े कम्पनी जो हमारे देश की छोटे-छोटे कम्पनी को संभलने में जिस तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, ज्यादा पैसा कम पैसा की ओर खीचा चला जाता है |
    इससे हम यह समझ रहे है कि किसान भाई भी कम्पनी का भरोसा करके खेती करने लगा है| खाद, बीज, कीटनाशक सभी को कम्पनी से लेने की होड़ मची हुई है| एक दिन किसान गुलाम हो जायेगा|
    बदलाव कैसे आएगा ?
    किसान, किसान का भरोसा नहीं कर रहा है, कम्पनी का कर रहा है|

    भाई रामकुमार की ओर से एक टिपण्णी 

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  2. यह आलेख मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है, आपका बहुत बहुत धन्यवाद, ईशान जी

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  3. The article written on Gafam is a very good article, Sir, I read it very carefully, you have written very correctly.

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