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माइक्रो-फाइनेंस का काला सच

फोटो इकनोमिक टाइम्स से 

हम देखेंगे। ..लाज़िम है के हम भी देखेंगे.. वो दिन के जिसका वादा है... 

पिछले 73 सालों के हज़ारों दिनों में हमारे हुकुमरानों ने हमसे कई वादे किये हैं। जब सोचता हूँ उनके बारे में तो ऊपर लिखी फैज़ की नज़्म ही याद आती है।ये वादे असल में जुमले साबित हुए, जो अवाम को शांत रखने के लिए समय समय पर गढ़े जाते रहे हैं। खैर !!

पिछले दो दशकों से इन्हीं हज़ारों जुमलों में से एक की बात हम आज यहाँ कर रहे हैं।  वह है "वित्तीय समावेश" (financial inclusion )। वित्तीय समावेश की पूरी कहानी का लब्बोलुआब ये है कि गरीब को वित्तीय संस्थानों से जोड़ देने से और उसे कर्ज योग्य (creditworthy) बना देने से उसकी गरीबी दूर हो सकती है। आपने जरूर सुना होगा कि हमारे देश में ३० करोड़ लोग अभी भी बैंकों की जद से बाहर हैं। यह बात ऐसे कही जाती है जैसे बस इसी एक वजह से वो अभी तक गरीबी की गिरफ्त में हैं। कहा जाता है कि ये लोग छोटे छोटे क़र्ज़ लेकर पूँजी को अपने कारोबार में लगा सकते हैं जिससे फिर वह ज़्यादा पैसा कमा सकते हैं। इसे माइक्रो-फाइनेंस कहते हैं। 

90 के दशक से माइक्रो-फाइनेंस या वित्तीय समावेश के मुहावरे ने विकास के शब्दकोष में अपनी जगह बना ली है। बांग्लादेशी सामाजिक कार्यकर्ता मोहम्मद युनुस के ग्रामीण बैंक के प्रयोग ने और हमारे देश के भी कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस विचार की नींव रखी। नव उदारवाद के उदय ने इस विचार को और हवा दी। हमारे देश में निजी बैंकिंग के उदय के साथ साथ माइक्रो-फाइनेंस का युग भी शुरू होता है। इसको महिलाओं के लिए भी एक वरदान माना गया। महिलाओं के उत्थान के लिए उनके समूह बनाये गए जिसमें महिलाएं हर हफ्ते या महीने में कुछ पैसे जमा करती हैं। फिर उस पैसे को बैंक में जमा कराती हैं। जब वह राशि बढ़ जाती है तो उसपर कर्ज उठाती हैं।इस पर आमतौर पर वो अपने समूह के सदस्यों को ब्याज देती हैं 2-3 % प्रति माह यानी सालाना 24-36 प्रतिशत। यह माना गया कि इतना भर कर देने से महिलाओं का सामाजिक स्थान बेहतर हो जायेगा। यानी महिला के पास वित्तीय शक्ति आ जाएगी तो वह घर में और बाहर ज्यादा इज़्ज़त से देखी जाने लगेगी। लेकिन अधिकतर बचत से ज्यादा माइक्रो-फाइनेंस संस्थाओं का ज़ोर क़र्ज़ बांटने पर रहता है। 

माइक्रो-फाइनेंस के केंद्र में यह विचार है कि बैंक एक गरीब व्यक्ति को इसलिए लोन नहीं देते हैं क्योंकि उन्हें उस पर पैसा लौटाने का भरोसा नहीं है।  हालाँकि सेठ-साहूकार सदियों से यह जानते हैं कि गरीब पैसा लौटा देता है या उससे वसूली की जा सकती है लेकिन हमारे बैंक ।खैर! ये माइक्रो-फाइनेंस देने वाली संस्थाएं दो प्रकार की हैं। कुछ अलाभकारी संस्थाएं हैं और कुछ पैसा कमाने के लिए इस से जुडी हुयी हैं। बताने की ज़रुरत नहीं कि पैसा  कमाने वाली संस्थाओं का जाल पैसा न कमाने वाली संस्थाओं से कहीं ज़्यादा है चूँकि उनमें उन्हीं वित्तीय संस्थाओं का पैसा लगा है जिनके बारे में ये दावा है कि वे गरीब को पैसा नहीं दे सकती। इस रस्ते, हज़ारों लोग अब इन माइक्रो-फाइनेंस संस्थाओं में काम करते हैं, गरीब को क़र्ज़ देते हैं और उनसे वसूलते हैं।  अक्टूबर 2019 में  इकनोमिक टाइम्स अखबार में छपी एक खबर के अनुसार इस पूरे क्षेत्र का कुल आकार मार्च 2019 तक 2.63 लाख करोड़ था।  जाहिर है कि माइक्रो-फाइनेंस अब एक वृहद आकार ले चुका है।  लिहाज़ा इसकी गंभीर आलोचना आवश्यक है। 


Covid-19 का माइक्रो-फाइनेंस पर प्रभाव 

कोविड 19 के इस दौर में माइक्रो-फाइनेंस का क्या हाल हुआ होगा? इसे समझने के लिए गुजरात इंस्टिट्यूट ऑफ़ डेवलपमेंट रिसर्च की  वरिष्ठ अर्थशास्त्री तारा नायर के covid 19 महामारी के समय में किये हुए शोध पर नज़र डालते हैं।  हमारा मत है कि उनका शोध न सिर्फ सूक्ष्म वित्त या माइक्रो-फाइनेंस की अवधारणा और उसको विकास के जामे में पेश करने वाले विचार को कटघरे में खड़ा करता है बल्कि इसके अलावा "अर्थव्यवस्था के  पिरामिड के निचले तलों" से खजाना (fortune at the bottom of the pyramid) निकालने के विचार को भी धता बताता है। उनका शोध याद दिलाता है कि माइक्रो-फाइनेंस के सामने किस तरह पहले भी संकट आते रहे हैं। मसलन, 2006, 2010 का भुगतान संकट, जिससे माइक्रो-फाइनेंस के अंधाधुंध बढ़ते ब्याज और जबरिया क़र्ज़ वसूलने के तरीकों पर रोक लगी। और फिर 2016 की नोट बंदी से उपजा संकट जिसने कई राज्यों में माइक्रो-फाइनेंस कंपनियों लघु फाइनेंस बैंकों के कारोबार को चोट पहुंचाई। यह क्षेत्र उसके परिणामों से उबर ही रहा था कि  covid-19 ने पूरे क्षेत्र की कमर तोड़ कर रख दी है। 

सुश्री तारा नायर ने अपना शोध अहमदाबाद के  निम्न आय वर्ग के परिवारों के साथ 2017 से 2018 के बीच शुरू किया। उन्होंने 30 परिवारों के अध्ययन में यह पाया कि 30 में से 21 परिवारों के ऊपर एक नहीं बल्कि कई संस्थाओं का कर्ज है। २१ परिवारों ने करीब 17 लाख का कुल कर्ज लिया था सालाना। शोध ने बताया कि परिवारों को अब आदत हो गयी है क़र्ज़ लेने की। वह हर महीने क़र्ज़ लेते हैं और फिर उससे पुराना क़र्ज़ चुकाते हैं या अपनी ज़रूरतें पूरी करते हैं। ये क़र्ज़ किसी एक बैंक या संस्था से नहीं बल्कि अलग बैंकों से लेते हैं। बहुत से महिला समूह सिर्फ अपने सदस्यों को एक एक बार लोन देने के लिए ही बनाये जाते हैं। जहाँ यह काम ख़त्म हुआ, समूह को बंद कर दिया जाता है और फिर कोई  नया समूह बना दिया जाता है फिर से लोन लेने के लिए। 7-8 सदस्यों के परिवार 25-26 हज़ार महीना कमाते हैं और आम तौर पर रोज़ कमाने, रोज़ खाने वाले परिवार हैं। इधर उधर से उधार लेकर किसी तरह क़र्ज़ चुकता करते हैं। 

लॉकडाउन के दौरान सुश्री तारा नायर ने इन्ही परिवारों में से 12 से बात की। यह बातचीत अप्रैल में की गयी थी। 12 में से दस परिवारों का रोज़गार छिन गया था और उनकी आय शून्य हो गयी थी। ज़ाहिर है इसका असर उनके क़र्ज़ की किश्त पटाने की क्षमता पर पड़ा।हर परिवार अपने क़र्ज़ को चुकाने की स्थिति में नहीं था। अधिकतर परिवारों को अपने क़र्ज़ चुकाने को लेकर चिंता थी माइक्रो-फाइनेंस संस्थाओं द्वारा दी जा रही सूचना साफ़ नहीं थी और इससे लोगों के बीच बहुत सी आशंकाओं ने जन्म ले लिया था। कुछ परिवार अहमदाबाद छोड़ कर अपने पैतृक जिले भी चले गए थे। 

सुश्री तारा नायर कहती हैं कि माइक्रो-फाइनेंस संस्थाओं के सामने covid-19 ने बड़े नैतिक और आधारभूत प्रश्न फिर से खड़े कर दिए हैं। जैसेकि क्या माइक्रो-फाइनेंस को क़र्ज़ बाटने और वसूलने की तेज़ प्रगति के मुक़ाबले आजीविका में धीमी पर  लगातार प्रगति  को नहीं उठाना चाहिए? सुश्री तारा नायर आगे यह भी लिखती हैं कि कैश केंद्रित  गरीबी उन्मूलन के विचार ने गरीबों और सरकार के बीच संबंधों को कमज़ोर बना दिया है और बैंकिंग संस्थाओं के सामाजिक उत्तरदायित्व और संवेदनशीलता को भी नुकसान पहुँचाया है। 


परिवार और सामाजिक जुड़ाव पर असर डालता माइक्रो-फिनांस 

एक और बड़ा प्रभाव जोकि माइक्रो-फाइनेंस समाज पर डाल रहा है, वह है कि अब व्यक्ति अपने सामाजिक ढाँचे से मदद लेने से कतराने लगा है। लोग अब अपने भाई-बहन या रिश्तेदार या दोस्त से क़र्ज़ लेने के मुक़ाबले एक संस्था से क़र्ज़ लेने में अपने आपको ज्यादा सहज पाते हैं चाहे उसकी भारी कीमत उन्हें चुकानी पड़े। इसका सीधा असर सामाजिक लेनदेन पर और परिवारों की सामाजिक सुरक्षा पर पड़ता है। हालाँकि इसके असर का अध्ययन अभी बाकी है पर ये तो साफ़ है कि बढ़ती सामाजिक दूरियां हमें हमारे सुरक्षा चक्र से दूर कर रही हैं। और हमें अनजाने खतरों की ओर धकेल रही हैं। यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा कि हम एक समाज के रूप में रिश्तों के बढ़ते मौद्रीकरण का कैसे सामना करेंगे। 

वैकल्पिक व्यवस्थाओं का उभार 
इन सब समस्याओं के बीच कुछ लोग उत्तर तलाश रहे हैं। कई लोग अब इस तरह की बैंकिंग के पक्ष में हैं जिसमें ब्याज का प्रश्न नहीं है। क़र्ज़ बिना ब्याज के देने का चलन धीमे धीमे बढ़ रहा है। "रंग दे" एक ऐसा ही वैकल्पिक प्रयास है। यह एक ऐसा इ-प्लेटफार्म है जिसमें क़र्ज़ देने वाले क़र्ज़ लेने वाले के संपर्क में रह सकते हैं और बिना किसी ब्याज के क़र्ज़ देते हैं। मुझे लगता है कि इसके अलावा हमें अपने आसपास अपने समाज से जुड़ाव करना चाहिए और परिवारों की पैसे की आवश्यकता को सामाजिक जुड़ाव से पूरा करके उस आवश्यकता को सामाजिक जुड़ाव का एक और महत्त्वपूर्ण कारण बनाने में सहयोग देना चाहिए। 


Comments

  1. Very true...finance can never be tools for poverty eradication..unless the investment in Jan (human skill) Jangal jameen Janvar productivity...... I see very few investment in these assets creation and more in consumption and purchase of non productive assets like TV...motorbike etc...

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  2. ईशान, अच्छा लेख लिखा है। इसका एक और आयाम है। जोड़ना चाहूंगी : स्वयं सहायता समुह के नाम पर लेन-देन के महिला समुह बने। इसका नतीजा यह हुआ की महिलाएं जो एक साथ आती थी, दुःख सुख की बातें करती थी, धरना, मोर्चा निकालती थी अब पास बुक और बही खाता के जाल में फस गयी। स्वयं सहायता खो गया। पानी, सेहत, राशन, हिंसा जैसे ज़रूरी सवाल पीछे रह गये। समानता, गरिमा, न्याय की चर्चा हवा हो गयी।

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    1. shukriya Anju Di..sahi hai..main is par aage likhna chahta hun

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  3. बहुत बढ़िया, गांव के स्तर पर माइक्रोफाइनेंस अपना पैर मजबूती से जमा चके है, उसमें अपने बहुत बढ़िया लेख लिखे हैं।

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  4. Micro finance के प्रयोग और परिणाम को देखकर एक बात तो पुख्ता हो गया कि केवल वित्तीय सहयोग से विकास संभव नहीं है। बहुत

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  5. abhi dekh rahe hai ki sehri chetra me priwet compni ka mahila grup bana kar 2-3 grup me judi hui hai har saptaha mahilaye paise ke liye bajar se nirbhar hai or abhi lock doun me market nahi lagne se kaphi dikkt hua hai lon ka pisa patane me .esi tarha fhines compni gawn me bhi grup bana kar jada bayj dar me bat rahi hai phir bhi mahilayen le rahi hai lon.-

    Mandla ke Shri Ramkumar Yadav ki tippani

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  6. बहुत ही प्रभावी लेख है जो वर्त्तमान माइक्रो-फाइनेंस के बिभिन्न आयामों को एक पल में जीवंत कर जाती है और ऐसे अनेकों प्रश्नों की कड़ी छोड़ जाती है जो आनेवाले समय में हमारे समाज में न जाने क्या प्रभाव लाने को हैं !!

    पर एक बात तो तय है कि इस मोल-भाव के मायाजाल से अब गरीबों की भलाई नगण्य और इसके संचालकों की कमाई में दिन-दोगुनी और रात-चौगुनी का इज़ाफा हो रहा है।

    आपके आलेख में एक बात सुकून दे गई कि "रंग दे" इस उत्पीड़न के कु-चक्र को रोकने की पहल के रूप में गतिमान है।

    देखना होगा कि किस प्रकार ये नवसृजित पहल नवाचार के इस अंकुर को वृक्ष में तब्दील करती है साथ ही कितनी राजनैतिक और नौकरशाही व्यवस्था का समर्थन जुटा पाती है !!

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    1. धन्यवाद प्रमोद जी.. एक और उदाहरण है इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था का जिसमें ब्याज लेना निषेध है। हमारे देश में इसको मान्यता नहीं है। पर कई गैर मुस्लिम देशों में भी इस व्यवस्था ने काफी प्रदर्शन बेहतर किया है। 

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  7. Worth reading. Now a days, People with low income group or daily wage earners, are highly dependent on MF companies. Just providing loans will not solve issues at ground. As the need of MF has been created in such a way, that rural population are bound to take loans form different MFIs, as same as credit card and EMI options available to the middle/high income group or to the urban population.

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