एक गाँव के छोटे से प्रयोग ने क्या दिखाया** (ध्वनि, धीरेश, सुहास, कीर्तन, राजेश, उमेश, रामकुमार और FES की बिछिया टीम को 2019 में किये इस प्रयोग के लिए आभार) विकास की दुनिया में “भागीदारी” शब्द बहुत चलता है। हर संस्था कहती है कि वे लोगों को साथ लेकर काम करती हैं । लेकिन क्या सच में लोगों की भागीदारी से उनकी सोच और हालात बदलते हैं? या यह बस एक औपचारिक तरीका बन गया है, जिसमें असली समस्याएँ वही की वही रहती हैं? इस सवाल को समझने के लिए दो बड़े विचारकों को याद करना जरूरी है—गांधी और पाउलो फ्रेरे। गांधी ने ऐसे समाज की कल्पना की थी जहाँ लोग खुद अपने फैसले लें। उन्होंने इस तरह भागीदारी के "क्या" का उत्तर देने का प्रयास किया। जबकि फ्रेरे ने बताया कि यह "कैसे" होगा—बातचीत करके साथ में सीखने से, मुद्दों की पैनी समझ बढ़ाने से और सही सवाल पूछने से जिससे शोषक व्यवस्था में सुधार किया जा सके । ये दोनों मिलकर बताते हैं कि असली भागीदारी सिर्फ बैठकों में लोगों को बुलाने से ज्यादा है। यह लोगों को यह समझने का मौका देती है कि उनके जीवन पर कौन-सी ताकतें असर डाल रही हैं। पाउलो फ्रेरे...
सम-सामायिक विषयों, पोस्ट डेवलपमेंट (उत्तर विकासवाद) और विकास के वैकल्पिक मार्गों की बात; जंगल के दावेदारों की कहानियां, कुछ कविताएं और कुछ अन्य कहानियाँ, व्यंग्य