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एक पर्यावरणवादी का घोषणापत्र


फोटो-इंडियन एक्सप्रेस से साभार 


वैश्विक एयर क्वालिटी रिपोर्ट 2020 के अनुसार  दुनिया के 30 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से 21  हमारे देश से थे। इन 21 शहरों में से 10 सिर्फ उत्तर प्रदेश में हैं। उत्तराखंड पिछले 8-10 सालों से लगातार अपने तेजी से खराब होते पर्यावरणीय हालातों के लिए सुर्ख़ियों  में रहा है। हर मानसून के मौसम में हम लोग त्राहि त्राहि कर रहे होते हैं। पंजाब में हरित क्रांति के फलस्वरूप चलने वाली कैंसर एक्सप्रेस हमारी खेती और भोजन में मिलने वाले ज़हर की ताक़ीद करती है और उस राज्य के खोखले होते युवा और किसान वर्ग की एक अफसोसनाक तस्वीर  पेश करती है। गोवा में पिछले कई वर्षों से खनन के खिलाफ और वहां के पर्यटन उद्योग के पर्यावरण  पर पड़ते बेहिसाब असर के खिलाफ आये दिन स्थानीय लोग आंदोलन करते ही रहते हैं। इन राज्यों में 140 करोड़ की जनसँख्या वाले हमारे देश की लगभग 22 प्रतिशत जनसँख्या रहती है। इन सभी राज्यों में अगले महीने से चुनाव हैं पर क्या आपने कभी यहाँ के पर्यावरण की बदतर हालत को चुनाव के शोर में सुना? हमने सोचा कि चलो इस नक्कारखाने में तूती हम ही बजाएं। 

ये जानते हुए भी कि यदि इस दशक में पर्यावरण और मौसमी बदलाव  से जुड़े सरोकारों को तवज्जो नहीं दी गयी तो मुझे नहीं पता कि हम कब अपनी आँखें खोलेंगे। देश की नदियों में सबसे महत्त्वपूर्ण गंगा नदी अब आखिरी सांसें गिन रही है। जनवरी 2021 में उत्तर प्रदेश सरकार के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने खुद इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सामने माना कि उत्तर प्रदेश में गंगा का पानी पीने लायक नहीं है। एक साल हो गया उस बात को, मुझे तो याद नहीं कि ऐसा कुछ किया गया हो जिससे लगे कि गंगा कुछ साफ़ हुई होगी। इसके उलट ऐसे कई कदम लिए गए हैं जिससे गंगा अपनी मौत के करीब पहुँचती जा रही है। मसलन गंगा की सहायक नदियों, केन और बेतवा को लिंक करने की परियोजना जिससे न सिर्फ गंगा में ताजे पानी की आपूर्ति कम होगी बल्कि उसके जलग्रहण क्षेत्र में पड़ने वाले जंगलों को भी खासा नुक्सान होगा। उत्तराखंड की चार धाम सड़क योजना और गंगा की कई सहायक नदियों पर बनने वाली छोटी बड़ी जल विद्युत् परियोजनाएं गंगा की क्या हालत किये बैठी हैं इसको हमें गिनाने की ज़रुरत नहीं होनी चाहिए। पिछले साल में ही इन परियोजनाओं पर हुए हादसों ने सैकड़ों की जान ली थी। पर हमें शायद इस सब से कोई फर्क नहीं पड़ता। 

फोटो इकनोमिक टाइम्स से साभार 



यमुना के प्रदूषण पर बहुत बात होती है।  इस बात को कई बार हम लोग दोहराते हैं कि दिल्ली में पड़ने वाले यमुना के 10-20 किलोमीटर लम्बे किनारे में यमुना का आधे से ज़्यादा प्रदूषण होता है। यही प्रदूषण गंगा में जाकर भी मिलता होगा। तो क्या यह प्रदूषण उत्तर प्रदेश के चुनावों का मुद्दा नहीं होना चाहिए? क्या इस पर बात करने के लिए राजनीतिक नेतृत्व को कोई न्योता चाहिए? बातें तो हम राम कृष्ण की करते हैं पर हम उन्हें मंदिरों में खोजते हैं। उन नदियों में क्यों नहीं, जिनके किनारे मथुरा, काशी, अयोध्या जैसे शहर हैं? क्या वो महज़ शोपीस हैं?

पिछले ही साल उत्तराखंड ने ज़बरदस्त दावानल देखे। लगभग अक्टूबर 2020 से लेकर अप्रैल 2021 तक लगातार जंगल जलते रहे। कुल 989 जंगलों में लगी आग ने एक ज़बरदस्त विनाश किया , जिसका असर 2021 में उत्तराखंड में होने वाले भू-स्खलनों पर भी देखा जा सकता है। वन्य प्राणियों को तो खैर हम किसी गिनती में रखते ही नहीं हैं। इस बार की मूसलाधार बारिश की आपदा में 100 से ज़्यादा लोगों की मौत हुई और कई सड़कें अभी तक भी इस क्षेत्र में बहाल नहीं हो पायी हैं। पर क्या उत्तराखंड के चुनाव में इस बात की ज़रा भी चिंता नज़र आती है? मुझे कहते हुए दुःख होता है कि मुझे तो नहीं नज़र आती। 

पंजाब में पराली जलाने को लेकर लगी पाबंदियों और जुर्मानों को लेकर किसान आंदोलन के दौरान बहुत बहस हुयी। पर पराली जलाने के पीछे के हालातों को समझने का प्रयत्न कितना हुआ? शायद ज़रुरत के दसवें हिस्से के बराबर। इस साल देर तक हुयी बारिश और हवाओं की बदली हुई दिशा के कारण पराली का उतना असर हमें नहीं दिखा जितना हर साल दिखाई देता है। पर इससे क्या समस्या सुलझ जाती है? पिछले तीन महीने से हम मुफ्त बिजली, मुफ्त क़र्ज़, मुफ्त  बीज और धर्म की राजनीति के गंदे खेल को ही देख रहे हैं। न तो पंजाब में नशे को लेकर और न ही खेती को लेकर किसी राजनीतिक दल या राजनीतिज्ञ ने कोई सकारात्मक बात सामने रखी है। 

अब चूँकि उम्मीद पर दुनिया कायम है तो मैं अपनी ओर से एक घोषणापत्र यहाँ डाल रहा हूँ। यदि पाठक चाहें तो आपके सुझावों से हम इसे और बेहतर बना सकते हैं।यदि कोई सुन रहा हो तो बहुत अच्छा, नहीं तो बिना कोशिश किये कैसे रहें। आपसे उम्मीद रहेगी कि इस घोषणापत्र को अपने विचारों में जगह दें। मेरा मंतव्य यह बिलकुल नहीं है कि यहाँ व्यक्त विचार ही सही हैं। मैं चाहता हूँ कि कम से कम एक सार्थक बहस तो शुरू हो। 

एक पर्यावरणवादी घोषणापत्र 

1. उत्तराखंड के वनों का प्रबंधन वहां के गाँवों के द्वारा वन-पंचायत व्यवस्था के अनुसार किया जाएगा जिसके लिए वन-प्रबंधन व्यवस्था को सरकारी कंट्रोल से बाहर "सरकार का सहयोग और समाज के प्रबंधन" की दिशा में ले जाने के लिए ठोस कदम उठाये जाएँगे। इसके लिए वन पंचायतों  को वनाधिकार कानून के अनुसार अधिकार की मान्यता दी जायेगी। 

2.  उत्तराखंड में इस समय नये  अस्पतालों, पोस्ट ऑफिस और स्कूलों को छोड़कर किसी भी नयी आधारभूत संरचना के प्रस्ताव को आगे नहीं बढ़ाया जाएगा। सिर्फ मौजूदा संरचनाओं को ही बेहतर  और चालू हालत में बनाये रखने पर ध्यान दिया जायेगा। 

3. उत्तराखंड में बढ़ते सूखे और जंगलों की आग को देखते हुए युद्ध स्तर पर चौड़े पत्ते वाले पेड़ जैसे बांज, बुरांश, काफल आदि को बढ़ावा दिया जाएगा और वनोपज और पशु पालन पर लोगों की निर्भरता को देखते हुए नीतियाँ बनाई जाएंगी। 

4. बांस और स्थानीय अन्य सामग्री से इमारतें बनाने या उनकी मरम्मत करने को बढ़ावा दिया जाएगा। हर छत -सौर ऊर्जा सृजन हो, ऐसी योजना बनायीं जाएगी और बड़े सौर ऊर्जा संयंत्रों को प्रोत्साहित नहीं किया जायेगा। 

5. शहरी एवं ग्रामीण इलाकों में, ख़ास तौर से पहाड़ी क्षेत्रों में सार्वजनिक यातायात की प्रणाली को मज़बूत किया जाएगा, और नीतियों के ज़रिये निजी बड़े वाहनों के इस्तेमाल और उनकी बढ़ती संख्या को नियंत्रित और हतोत्साहित किया जायेगा। 

6. उत्तराखंड में जल और नौला संरक्षण पर बल दिया जाएगा और इसके लिए समुदाय आधारित मज़बूत और पारदर्शी मॉनिटरिंग व्यवस्था स्थापित की जायेगी। 

7. उत्तराखंड में शराब और पर्यटन पर आधारित आर्थिक मॉडल के बजाय वन, कृषि और कुटीर उद्योग आधारित अर्थव्यवस्था पर ज़ोर दिया जाएगा। सभी राज्यों में एक ऐसी स्थानीय स्रोतों पर आधारित सर्कुलर अर्थव्यवस्था  स्थापित किया जाएगा जो स्थानीय मांग को स्थानीय या क्षेत्रीय  स्तर पर ही पूरा कर सके और अधिक  पैसे के लोगों के बीच घूमने पर  आधारित हो न कि उसके परिग्रह (होर्डिंग) पर आधारित हो। 

8.  सभी राज्यों में सिंगल यूज़ प्लास्टिक, स्टायरोफोम और अन्य प्रकार के हानिकारक पैकेजिंग मटेरियल पर  रोक लगेगी। कागज़ के लिफ़ाफ़ों और कपडे के थैलों को बढ़ावा दिया जाएगा। 

9. उद्योगों पर प्रदूषण के नियमों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जायेगा। 

10. गंगा और यमुना एवं अन्य नदियों में उनका इकोसिस्टम और जैव विविधता बनाये रखने लायक धारा प्रवाह बनाये रखा जाएगा। 

11 . रेत के अवैध कारोबार पर नियंत्रण किया जाएगा। 

12 . भू-जल को सामुदायिक स्रोत मानते हुए ग्राम स्तर पर समुदाय के प्रबंधन की व्यवस्था बनायी जायेगी। और आर्सेनिक के बढ़ते प्रकोप को देखते हए, सामुदायिक सतही जल स्रोतों के विकास और संरक्षण हेतु नीतिगत और कार्यक्रमगत बदलाव किये जायेंगे। 

13. वन-विहीन और कृषि एवं उद्योग संपन्न लैंडस्केप्स में हरीतिमा लाने के लिए ठोस प्रयास किये जाएंगे जिसकी मॉनिटरिंग स्थानीय और शीर्ष स्तर पर की जायेगी। 

14. कृषि को रसायन मुक्त और GMO बीज मुक्त बनाते हुए किसानों के बीज पर पूर्ण अधिकार को स्थापित किया जाएगा। एक ऐसी कृषि नीति विकसित की जायेगी जोकि किसानों को प्राकृतिक खेती की ओर ले  मदद करे। 

Comments

  1. Seems like a manifesto for a Green Party

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  2. बहुत ही सटीक विश्लेषण। इसमें निम्न मुद्दों को और जोड़ा जा सकता है:
    १. पाठशालाओं में पर्यावरण शिक्षा पर ज़ोर दिया जाय
    २. पर्यावरण पर स्थानीय एवं राजनीतिक जागरूकता के साथ साथ उस पर प्राथमिकता से कार्य किये जाय
    ३. हरित आजीविका पर जोर दिया जाये
    ४. छोटे छोटे जंगल विकसित कर उनका प्रबंधन किशोर वय के बच्चों को दिया जाय
    ५. संवहनीय वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोतों हेतु वातावरण निर्मित कर उसके विभिन्न मॉडल विकसित किए जाय
    ६. स्थानीय स्तर पर शोध को बढ़ावा दिया जाय

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  3. बेहतरीन लेख।

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  4. एक और बेहतरीन लेख ईशान भाई, धन्यवाद। उत्तराखंड मैं बांज के जंगल बड़ी तेजी से ख़त्म हो रहे है, जिसके गंभीर सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और पारिस्थितकीय परिणाम होंगे। ऐसे में आपका घोषणापत्र मैं चौड़े पत्तियों वाले पौधों के पुनरुत्पादन एक अत्यंत जरूरी कार्य है।

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  5. साथियों की टिपण्णी का धन्यवाद् . आज ही न्यूज़्लॉन्ड्री के यूट्यूब चैनल पर गंगा के मैदानी क्षेत्र में  आर्सेनिक के बढ़ते असर पर एक तकलीफदेह वृत्तचित्र देखा। उसे हिसाब से इस लेख में तरमीम कर दी है। 

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