Skip to main content

समझने वाले और समझाने वाले



हमारे यहाँ समझाने वाले बहुत हैं.. बहुत कम हैं समझने वाले.. और उससे भी कम समझ कर समझाने वाले.. सुनने वाले भी बहुत हैं..जैसेकि समझाने वाले बहुत हैं..

वक़्त नहीं है समझने का.. जल्दी बहुत है सबको.समझें कैसे.. समझने में वक़्त लगता है..मन दुखता है..और दिमाग पर ज़ोर भी पड़ता है.. पर यूँ ही बिना समझे ज़िन्दगी तो चल ही सकती है..समझाने वालो के भरोसे.. जिनके शोर में समझने वाले खो गए हैं..

हमने आदत डाल ली न समझने की.. पर समझाने वाले बाज़ आते नहीं.. क्या करें.. तो हम भी समझते नहीं।।बस सुनते हैं..

कबीर की  बातो से लगता है के वह सिर्फ समझना चाहते थे.. दोहे में अपनी समझी हुयी बात पिरोते थे.. और फिर समझने वाले समझ जाते थे.. अगर कोई सुन के समझे तो अच्छी बात नहीं तो..कबीरा अपने रस्ते..

मैं भी समझना चाहता हूँ.. समझाना  गैर-इरादतन है. अगर कोई सुन के समझे तो अच्छी बात, नहीं तो..कबीरा अपने रस्ते..


Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

Do Participatory Approaches Spark Critical Consciousness? Inside a Village Experiment That Reveals What Development Often Misses**

  (Acknowledgements: Dhwani Lalai, Keertan Baghel, Ramkumar, Dheeresh, Umesh and Rajesh of Foundation for Ecological Security in 2019-20) For decades, “participation” has been one of the most overused—and least understood—words in development. From large donor programmes to grassroots NGOs, everyone claims to involve the community. But does participation really empower people? Or has it become a comfortable ritual that leaves deeper structures untouched? Mahatma Gandhi: Google images Paulo Friere: from shutterstock To answer this, it helps to return to two thinkers who shaped the idea long before it became a development buzzword. Mahatma Gandhi imagined the what of a true democracy—self-governed, self-reliant communities shaping their own futures. Paulo Freire offered the how —dialogue, critical awareness and the courage to question oppression. When put together, they point toward a participatory approach that is not just about including people in projects, but about enabling t...

क्या लोगों की भागीदारी से सच में सोच बदलती है?

  एक गाँव के छोटे से प्रयोग ने क्या दिखाया** (ध्वनि, धीरेश, सुहास, कीर्तन, राजेश, उमेश, रामकुमार और FES की बिछिया टीम को 2019 में किये इस प्रयोग के लिए आभार) विकास की दुनिया में “भागीदारी” शब्द बहुत चलता है। हर संस्था कहती है कि वे लोगों को साथ लेकर काम करती हैं । लेकिन क्या सच में लोगों की भागीदारी से उनकी सोच और हालात बदलते हैं? या यह बस एक औपचारिक तरीका बन गया है, जिसमें असली समस्याएँ वही की वही रहती हैं? इस सवाल को समझने के लिए दो बड़े विचारकों को याद करना जरूरी है—गांधी और पाउलो फ्रेरे। गांधी ने ऐसे समाज की कल्पना की थी जहाँ लोग खुद अपने फैसले लें। उन्होंने इस तरह भागीदारी के "क्या" का उत्तर देने का प्रयास किया। जबकि फ्रेरे ने बताया कि यह "कैसे" होगा—बातचीत करके साथ में सीखने  से, मुद्दों की पैनी समझ बढ़ाने से और सही सवाल पूछने से जिससे शोषक  व्यवस्था  में सुधार किया जा सके । ये दोनों मिलकर बताते हैं कि असली भागीदारी सिर्फ बैठकों में लोगों को बुलाने से ज्यादा है। यह लोगों को यह समझने का मौका देती है कि उनके जीवन पर कौन-सी ताकतें असर डाल रही हैं। पाउलो फ्रेरे...

किसानों और जंगली जानवरों का लफड़ा क्या है

हिंदुस्तान टाइम्स से साभार   आज बच्चों के साथ बैठा नेशनल जियोग्राफिक चैनल देख रहा था।  भारत के पूर्वोत्तर के जंगलों पर सुन्दर वृत्तचित्र था वह।उत्तंग हिमालय से शुरू करके ब्रह्मपुत्र के विशाल फाट तक अचंभित कर देने वाले दृश्य। गोल्डन लंगूर, रेड पांडा, एशियाई काला भालू और न जाने क्या क्या।  पर जैसे ही कहानी मनुष्य-जानवर द्वन्द पर उतरी, मुझे बड़ा दुःख हुआ। उसमें हाथियों के घटते रहवास को लेकर चिंता प्रकट की जा रही थी।  कहा जा रहा था के पूर्वोत्तर में जनसँख्या और खेती के लिए जमीन का लालच बढ़ रहा है। और इस लालच से हमारे हाथियों के लिए रहवास कम रह गया है। क्या सच में किसानों का लालच हाथियों के घटते रहवास के लिए जिम्मेदार है? इस बात को इस तरह से पेश किया जाता है जैसे यह कोई ब्रह्म-वाक्य हो, के भैया ! यही सच है.. जान लेयो। और बाकी सब  है मिथ्या। हमारी पहले से ही मूर्ख बनी मध्य-वर्गीय दुनिया को और मूर्ख बनाते रहने की साजिश है ये। मैं उत्तराखंड का रहने वाला हूँ। हमारे यहाँ भी जंगल थोक के भाव है।  वहां भी यही घिसी पिटी कहानी कई दशकों से लोग सुनाये जा...