हमारे यहाँ समझाने वाले बहुत हैं.. बहुत कम हैं समझने वाले.. और उससे भी कम समझ कर समझाने वाले.. सुनने वाले भी बहुत हैं..जैसेकि समझाने वाले बहुत हैं..
वक़्त नहीं है समझने का.. जल्दी बहुत है सबको.समझें कैसे.. समझने में वक़्त लगता है..मन दुखता है..और दिमाग पर ज़ोर भी पड़ता है.. पर यूँ ही बिना समझे ज़िन्दगी तो चल ही सकती है..समझाने वालो के भरोसे.. जिनके शोर में समझने वाले खो गए हैं..
हमने आदत डाल ली न समझने की.. पर समझाने वाले बाज़ आते नहीं.. क्या करें.. तो हम भी समझते नहीं।।बस सुनते हैं..
कबीर की बातो से लगता है के वह सिर्फ समझना चाहते थे.. दोहे में अपनी समझी हुयी बात पिरोते थे.. और फिर समझने वाले समझ जाते थे.. अगर कोई सुन के समझे तो अच्छी बात नहीं तो..कबीरा अपने रस्ते..
मैं भी समझना चाहता हूँ.. समझाना गैर-इरादतन है. अगर कोई सुन के समझे तो अच्छी बात, नहीं तो..कबीरा अपने रस्ते..
I think both are two sides of coin ☺️
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