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बांग्लादेश की छलाँग और गैर सरकारी संस्थाएं

फोटो इंटरनेट से 

पिछले दिनों देश  आर्थिक हलकों में ये खबर छायी रही की बांग्लादेश ने प्रति-व्यक्ति आय के मामले में भारत की बराबरी कर ली है। मानव जीवन की गुणवत्ता  के कई मायनों में बांग्लादेश हम से पहले ही आगे था। मसलन औसत आयु के मामले में, जनसँख्या वृद्धि दर पर अंकुश लगाने के मामले में, महिलाओं के उत्थान के मामले में और न जाने कितने ऐसे मामलों में एक एक करके हम बांग्लादेश से पिछड़ते गए हैं। हम स्वच्छ भारत का ढिंढोरा ही पीटते रहे और हमारा पडोसी मुल्क  खुले में शौच से लगभग पूरी तरह से मुक्त भी हो गया। 

 बांग्लादेश की इस तरक्की में बहुत से कारक हैं।  पर एक कारक जिस पर आज हम ध्यान दिलाना चाहेंगे, वह ऐसा है जिसे हमारे देश में आज शक की नज़र से देखा जा रहा है।  यह है बांग्लादेश की विशाल गैर सरकारी संस्थाएं। 2006 में जब मैंने  सरकारी संस्था  में काम करना शुरू किया था, तो मेरे एक सीनियर और गैर सरकारी संस्था क्षेत्र के एक प्रमुख विद्वान् ने मुझे बताया था कि बांग्लादेश में ऐसी कई संस्थाएं हैं जिन्हें अब वहां की सरकार चाहकर भी मिटा नहीं सकती। यह इतनी बड़ी हो गयी हैं कि पूरा देश अब किसी न किसी रूप में उनपर निर्भर है। सुनकर मुझ 26 साल के लड़के को बहुत अचरज हुआ था। आज भी सुनने में अजीब लगता है।  मैंने बांग्लादेश  के बारे में और वहां की संस्थाओं के बारे में बाद में आलोचनाएं भी पढ़ीं। पर अपनी सभी खामियों, आलोचनाओं के बावजूद, गैर-सरकारी या अ-सरकारी संस्थाएं अपने समय से आगे रहती हैं और हमारी दुनिया को बेहतर बनाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।  विनोबा भावे ने कहा था अ-सरकारी माने असर-कारी। गैर सरकारी संस्थाएं समाज के दबे कुचलों तक पहुँच बना पाती हैं, सरकार से बेहतर पहुँच बनाती हैं, इस  बात में कोई संदेह नहीं है। 

बांग्लादेशी संस्थाओं का योगदान 

बांग्लादेशी संस्थाओं के काम का युग पहलेपहल शुरू हुआ बांग्लादेश की आज़ादी के एकदम बाद पुनर्निर्माण के दौर में। उस समय जब आधारभूत ढांचा एक दम ध्वस्त था, गैर-सरकारी संस्थाओं ने उस समय से ही गरीबी उन्मूलन, आजीविका, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बहुत योगदान दिया। बाद में इन्ही संस्थाओं ने जनरल इरशाद  के दौर में सेना के शासन का खूब विरोध किया और एक लोकतान्त्रिक बांग्लादेश की नींव डाली। 1990 के दशक में कुछ स्थानीय और बहुत कुछ विदेशी पूँजी के दम पर संस्थाएं अर्थव्यवस्था के कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में पैठ बनाती गयीं। इसमें पहले  हथकरघा उद्योग, मछली पालन, पशु पालन और बाद में बैंकिंग और बाद में वस्त्रों की सिलाई के रेडीमेड गारमेंट्स के काम में भी। 

आज के दौर में अधिकतर जिन  बांग्लादेशी संस्थाओं का नाम सुनने में आता है, उनमें BRAC और ग्रामीण बैंक प्रमुख हैं। इनका काम खासतौर पर सूक्ष्म वित्त (माइक्रो-फाइनेंस) पर पूरी  दुनिया में सराहा गया है। BRAC और ग्रामीण बैंक अब बांग्लादेश के ग्रामीण और शहरी निम्न आय वर्ग के आर्थिक ढांचे का एक महत्त्वपूर्ण स्तम्भ हैं।

आज कई सरकारी विभाग अपना काफी सारा काम इन्ही संस्थाओं के माध्यम से कराते हैं। यह कोई अच्छी बात नहीं कही जा सकती पर यह गैर सरकारी संस्थाओं की  ताक़त को कम, सरकारी संस्थाओं की कमज़ोरी को ज्यादा बताता है। एक और उपलब्धि जिसका श्रेय गैर-सरकारी संस्थाओं को जाता है, वह है संस्थाओं का लड़कियों की शिक्षा और स्वास्थय पर काम।दोनों ही मामले में बांग्लादेश अपने पडोसी देशों से बेहतर स्थिति में है, हालाँकि वहां की सरकार शिक्षा और स्वास्थय के लिए सकल घरेलु उत्पाद का बहुत मामूली हिस्सा ही खर्च करती है।  गैर सरकारी संस्थाओं के कारण आज बांग्लादेश सामाजिक सूचकांकों में विकसित देशों की बराबरी करने लग गया है। यह सब तब जब प्राकृतिक आपदाएं बांग्लादेश में आये दिन आती रहती हैं और बांग्ला देश मौसमी बदलाव से सबसे ज्यादा  प्रभावित होने वाले देशों में से है। 

भारत में गैर सरकारी संस्थाओं का योगदान 

भारत की गैर सरकारी संस्थाओं का योगदान भी कुछ कम नहीं है। पर हमें दिखाई कम देता है। गैर-सरकारी संस्थाओं ने ही हथकरघा उद्योग को वापस लड़ने के काबिल बनाया और उन लाखों लोगों  बेरोज़गार होने से बचाया जो अपने हाथ के हुनर पर ही निर्भर थे। देश के शिक्षा के अधिकार, रोज़गार का अधिकार, सूचना अधिकार, जैविविधता कानून, बाल श्रम रोकने के कानून, वन अधिकार कानून आदि सैकड़ों सामाजिक, राजनीतिक और विधिक प्रयोग गैर-सरकारी संस्थाओं की प्रेरणा  प्रयासों से ही सफल हो पाए हैं। बांग्लादेश की ही तरह भारत में भी गैर-सरकारी संस्थाओं ने पर्यावरण संरक्षण, महिलाओं के अधिकार, पोषण, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में आखिरी व्यक्ति तक पहुँच बनाई और स्वराज के सपने को साकार करने में योगदान दिया। 

गैर सरकारी संस्थाओं की सैकड़ों कानूनी लड़ाइयों, जन आंदोलनों की बदौलत लड़कियों पर एसिड अटैक के खिलाफ सख्त कानून बने, हर साल सैकड़ों लड़कियों और बच्चों को देह व्यापार से बचाया गया, कामगारों-किसानों के अनगिनत संगठन बन पाए, दिल्ली में CNG  वाली बसें आ पायीं। ऐसे असंख्य बदलाव गैर सरकारी संस्थाएं इस देश में सभी तरह के दबावों और दमन के बावजूद ला पायी हैं। एक अकेले सूचना के अधिकार ने ही सारे देशवासियों के हाथ में एक ऐसा हथियार थमा दिया जिसके दम पर आज सैकड़ों लड़ाइयां लड़ी जा रही हैं और जनतंत्र को मज़बूत किया जा रहा है।  covid-19 के दौरान मज़दूरों की मदद में सबसे आगे गैर सरकारी संस्थाएं ही थी। सरकारी संस्थाओं से कहीं आगे। 

2005 में इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली के एक लेख के अनुसार करीब 1.92 करोड़ लोग स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं के रूप में काम करते थे। लगभग 27 लाख लोग इन संस्थाओं में वेतनभोगी थे और करीब 36 लाख लोग पूर्णकालिक स्वयंसेवी थे। यह संख्या और महत्वपूर्ण हो जाती है जब हम इसकी तुलना वर्ष 2000 में काम कर रहे सरकारी कर्मचारियों से करते हैं, जो उस समय 33 लाख ही थी। हमें लगता है कि  ये संख्या अब करीब करीब 40 लाख तो होगी। देश में हर 1000 व्यक्तियों पर 4 संस्थाएं हैं।विशुद्ध रोज़गार की दृष्टि से देखें तो भी यह क्षेत्र बहुत बड़ा योगदान करता है देश की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने में। 

 गैर सरकारी संस्थाओं की आलोचना-कितनी सच, कितनी झूठ 

भारत में गैर सरकारी संस्थाओं को आमतौर पर चार कारणों से आलोचना का शिकार बनना पड़ता है।

 सबसे पहला कारण है विदेशी अनुदान का उपयोग. 2009-10  में करीब 10893 करोड़ रुपये का विदेशी धन गैरसरकारी संस्थाओं के उपयोग में आया। 2016-17  से 2018-2019 तक 58000 करोड़ रूपया का विदेशी अनुदान का भारत आने का अनुमान है, यानी करीब 19 हज़ार करोड़ रूपए सालाना । यह कहा जाता है कि इस धन के देश हित  में उपयोग न होने की सम्भावना है।  जरा इस संख्या की  देश में आये विदेशी पूँजी निवेश (FDI) से करें। 2020 में अप्रैल से सितम्बर तक देश में कुल विदेशी निवेश हुआ 2.60 लाख करोड़। यानी सिर्फ 6 महीने में 3 साल के कुल विदेशी अनुदान से ४ गुना। यहाँ यह बताना आवश्यक है की कई भारतीय कंपनियां जिनमें विदेशी पूँजी 50% से ज्यादा है, उनका अनुदान भी विदेशी अनुदान बन  जाता है। पाठक यह जानकर आश्चर्य करेंगे कि हिंदुस्तान यूनिलीवर और एक्सिस बैंक जैसे संस्थाओं से मिलने वाला अनुदान भी विदेशी अनुदान के नियमों अंतर्गत आता है। अब ये कंपनियां क्या कुछ भी ऐसा कर सकती हैं जो सिस्टम को बुनियादी रूप से चुनौती दे ? ऐसे नियम विदेशी अनुदान को बढ़ा चढ़ा कर दिखाते हैं और उसके ख़तरे को गलत करके आंकते हैं। आम तौर पर विदेशी अनुदान कड़ी शर्तों के साथ आता है और इस पैसे का देश के खिलाफ इस्तेमाल होने की दूर, एक्टिविस्ट की भी पहुँच बनाना आसान नहीं है। मजे की बात यह है की राजनीतिक दलों पर विदेशी चंदा लेने के लिए कोई रोक नहीं है। उनके द्वारा पैसा लेने पर तो देश का कहीं अधिक नुक्सान हो सकता है। 

विदेशी अनुदान को अपने ऊपर खर्च करने को लेकर भी संस्थाओं की आलोचना होती है। यह सही है कि पेशेवर समाजसेवियों की बढ़ती संख्या और उनकी बढ़ती मांग के कारण संस्थाओं की तनख्वाहें बढ़ी हैं। लोग अब असल में कार्यकर्ता हैं, स्वयंसेवी नहीं। पर इस तरह का खर्चा सिर्फ लोगों के ऊपर नहीं होता। वह खर्च ऐसे कई कामों के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो कोई और निजी या सरकारी संस्थाएं नहीं करेंगी। मसलन अधिकारों के हनन सम्बन्धी रिपोर्टें बनाना हो, कोर्ट में किसी न-इंसाफ़ी के खिलाफ अपील करनी हो, बड़ी बैठकें या जलसे करने हों, जहाँ लोग आ सकें। इस सब में खर्च तो आता ही है। लोगों का मिलना जुलना, संगठित होना एक लोकतंत्र के लिए बेहद आवश्यक है। इससे सरकारों को डरना नहीं चाहिए। 

गैर सरकारी संस्थाओं को जिस आरोप का सबसे ज्यादा सामना करना पड़ता है वह है उनका भ्रष्टाचार में लिप्त होना। यह आरोप पूरी तरह से गलत नहीं है।  देश में 1.3 करोड़ से ज्यादा संस्थाएं हैं। यानी 600 लोगों पर एक संस्था। पर जाहिर है कि उनका प्रभाव इतना बड़ा नहीं दिखाई देता। गौरतलब है कि संस्थाओं में धार्मिक ट्रस्ट, खैराती दवाखाने, स्कूल सब शामिल हैं। इसका अर्थ यह है कि वाक़ई सामाजिक कार्यों में लगी संस्थाओं का अंदाजा इस संख्या से नहीं लग सकता। पर इसका यह अर्थ नहीं कि गैर सरकारी संस्थाओं में भ्रष्टाचार नहीं है। कई बार तो इनका गठन ही हेराफेरी के लिए होता है। पर समाज का कौनसा ऐसा क्षेत्र है देश में जिसमें भ्रष्टाचार नहीं है ? अपनी सारी खामियों के बावजूद, गैर सरकारी संस्थाएं सरकारी संस्थाओं से ज्यादा भरोसेमंद मानी जाती हैं। जैसे सभी क्षेत्रों से भ्रष्टाचार कम करने की ज़रुरत है, वैसे ही गैर सरकारी संस्थाओं से भी इसे कम करने की ज़रुरत है पर इसके लिए पूरे क्षेत्र को बदनाम करने से हम देश के लोकतंत्र और संवैधानिक अधिकारों और प्रक्रियाओं को मेजर ही बनाएंगे। 

संस्थाओं की बढ़ती संख्या को भी निशाने पर लिया जाता है। पर विकसित देशों के प्रति व्यक्ति संस्थाओं के घनत्व के पैमाने पर हमारा देश अभी भी पिछले पायदान पर है। दुनिया के सभी बेहतर देशों में जिनके सामाजिक और आर्थिक सूचकांक हमसे बेहतर हैं , जिसमें अब बांग्लादेश भी शामिल है और जो लोकतान्त्रिक होने का दम भरते हैं, उन सब में एक फलता फूलता गैरसरकारी क्षेत्र है। यह क्षेत्र यह संभावना बढ़ता है के लोग मात्र आर्थिक लाभ के मायने में सफलता को न देखें। 

असल सुधार क्या हो 

मैं पहले अमिताभ बेहर जी के लेख का हिंदी अनुवाद अपने ब्लॉग में शेयर कर चुका हूँ। संस्थाओं की सबसे बड़ी आलोचना समाज प्रचलित धारणाएं नहीं हैं, जिनका जिक्र मैंने ऊपर किया है। बल्कि उनका घटता सामाजिक जनाधार है, जिसके बल पर वह आज इस मुक़ाम पर पहुंचे हैं। यह बड़ा गंभीर मामला है क्योंकि यह गैरसरकारी संस्थाओं के वज़ूद के नैतिक कारण से जुड़ा हुआ है। यदि संस्थाएं लोगों को संगठित करने और अपने अधिकारों के लिए सजग करने में अपनी भूमिका नहीं निभाते हैं तो उनमें और सरकार या निजी संस्थाओं में क्या फ़र्क़ रह जाता है। 

संस्थाओं की फंडिंग उनके प्रभाव या इम्पैक्ट के हिसाब से होना चाहिए न कि उनके बजट के हिसाब से। मसलन शिक्षा के मुद्दे पर काम करने वाली  संस्थाओं को चंदा इस बात पर मिलना चाहिए कि उनके प्रयासों से कितने बच्चे या बड़े प्रभावपूर्ण तरीके से शिक्षित और समर्थ नागरिक बने, न कि इस बात से कि उन्होंने कितनी बैठकें की, कितने स्कूल खोले या कितनी ट्रेनिंग की। मात्र गतिविधियों को मापने से संस्थाओं में गतिविधि पर ध्यान अधिक बढ़ गया है बजाय कि असल प्रभाव को मापने के। 

भारत में काम करने वाली सभी कंपनियों, उनमें विदेशी पूँजी के निवेश के बावजूद गैरसरकारी संस्थाओं में निवेश को छूट रहनी चाहिए। ऐसे भी कंपनियों का पैसा सीधे विकास कार्यों में ही जाता है। 

स्वयंसेवी संस्थाएं वाक़ई स्वयंसेवी कैसे बनी रहेंगी, इस पर विचार की आवश्यकता है। संस्थाएं जज़्बे से चलती हैं। पैसे से उद्योग चलते हैं, संस्थाएं नहीं। मैं खुद एक पेशेवर सामाजिक कार्यकर्ता हूँ। मेरे जैसे लोगों को आत्म मंथन करने की आवश्यकता है कि क्या वह समाजसेवा कर रहे हैं? क्या उनके काम से समाज इकठ्ठा हो रहा है? क्या उनके काम में लालच की बू आ रही है? "साईं उतना दीजिये, जामे कुटुम समाय। मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाय।" इस क्षेत्र में काम करने वाले हर व्यक्ति की यही सोच होनी चाहिए। यह कोई रोज़गार का जरिया नहीं है, समाज के प्रति जागरूक लोगों का प्रयास है। 


Comments

  1. Interestingly put...pls keep these coming.

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    1. धन्यवाद नीरज भाई 

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  2. Good work. हमेशा से ही हम भारतीय दूसरों की कमियों को ही गिनते आये है। ईशान भी आपने इतनी अच्छी research को लिखा है, पढ़ने वाले एकबार फिर सोचेंगे कि क्या हम लोग बहुत विकास कर रहे है या उसका भ्रम ही विकसित कर रहे है।
    समाज सेवा एक ऐसा विषय है जिसमें बहुत सारी विरोधास्पद बातें है। पर एक बात निश्चित है कि उसमें जो कुछ भी किया जाता है वो impact oriented हो। कितना आया कितना खर्च किया ये सब तो व्यापार में होता है।
    फिर से धन्यवाद आपके लेख के लिए।
    विशाल

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    1. शुक्रिया विशाल ! उम्मीद है इस बात पर आगे और मंथन होगा। 

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  3. Thanks for sharing this Ishan. There is a point that is being missed in my view.
    The reduction of the salary component to 20% is seen as a control over making money. This is hard to prove but the charge of greed sticks easily. I think there is a different argument however that explains the pattern of constant reduction of the human/salary component. This is the conception of development as material or work embodied in material rather than immaterial aspects of life quality. As you know it is easier to get money to build an anecut than to build a network of cooperation. It is based on our conception of development as expressed in things or material production and consumption. GDP is a fundamentally material concept. At the same time we know that real development is not only about material things. Our work on the commons is a good example of this. People living on 25000 per year are living on relationships and institutional investments in what we can call non-material works. This is what the gdp misses, this is what the reduction in salary component attacks. When you pay community workers some very modest wages you are investing in them not materially but because it gives them seurity and exposure to new possibilities. The attempt at making the civil society space unviable is a response to the fundamental challenge it gives to the states imagination of development as not limited to gdp or material throughput. I think this point is being missed by the critics. It is a belief that is guiding not just the present government but the previous regime also. Both are grounded in a faith in the materiality of development. build dams, roads, things in general. Money spent on them is considered money well spent, but not money spent on strengthening peoples chances of learning to think and feel self respect. My argument is not completely consistent, because someone might say why do you need wages at all? But this is an extreme position which no one is advocating. In reality you need both moral and material development.
    Thanks for reading.
    - Comment by Dr. Purnendu Kavoori, Prof. APU

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