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उबुन्टु, सामुदायिक संसाधन और एलिनोर ओस्ट्रॉम


अफ्रीका का एक बड़ा मशहूर किस्सा है। एक मानवविज्ञानी ने अफ्रीकी जनजातियों के अपने अध्ययन के दौरान वहाँ के बच्चों को एक खेल का प्रस्ताव दिया। उसने एक पेड़ के पास फल से भरी एक टोकरी डाल दी और दूर बैठे बच्चों को बताया कि जो भी वहां टोकरी तक पहले पहुंचेगा उसे सारे फल मिल जायेंगे। जब उसने बच्चों को दौड़ने को कहा तो वह सब एक दूसरे का हाथ पकड़ कर दौड़ पड़े और फल आपस में बांटने लगे। जब उसने उनसे पूछा कि वे इस तरह क्यों कर रहे थे , तो उनका जवाब था: "UBUNTU! इसका अर्थ था, हम में से एक कैसे खुश रहेगा यदि अन्य सभी दुखी हैं? "


"उबुन्टु"- इसी सामुदायिक भावना में मानवता का असल सार है। दुनिया भर के गाँव और शहर ऐसे अनेकों उदाहरणों से अटे पड़े हैं। ये सामुदायिक भावना उस कम्युनिस्ट विचारधारा से बंधी नहीं है जोकि प्रोलीतारिआत के नाम पर सर्वशक्तिमान राज्य की कल्पना करती है। न ही यह कोरी पूंजीवादी सोच है जोकि व्यक्तिगत आज़ादी के नाम पर मानव महत्वाकांक्षाओं का अश्लील उत्सव बनाती है। यह उन सब के बीच कहीं है, गांधी के ग्राम स्वराज की अवधारणा के आसपास। अंग्रेजी में हम इस सामुदायिकता के विचार को कॉमन्स कहते हैं।

आधुनिक युग में प्राकृतिक संसाधनों पर राज्य या बाजार के एकाधिकार को सदैव बेहतर समझा गया है।माने जंगल, पानी, जमीन पर यदि सरकार या बाज़ार का अधिकार हो तो उनका प्रबंधन बेहतर होगा, ऐसा आधुनिक विचार कहता है। पश्चिमी समाज में जहाँ आधुनिक अर्थशास्त्र का जन्म हुआ वहीं "ट्रेजेडी ऑफ़ कॉमन्स" या कॉमन्स की त्रासदी नाम का एक मशहूर शोध प्रबंध लिखा गया। गर्रेट हार्डेन ने 1968 में यह प्रबंध लिख कर शोध जगत में हलचल मचा दी। यह प्रबंध स्कॉटलैंड के चरागाहों के उदाहरण से साझा-संसाधन प्रणाली की कमज़ोरियों का वर्णन करता है जहां व्यक्तिगत उपयोगकर्ता अपने स्वयं के हित के अनुसार स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं, और एक दूसरे से सामंजस्य बिठाने के बजाय अपने हित में संसाधनों का अंधांधुंध दोहन करते हैं। फलस्वरूप संसाधन नष्ट हो जाता है।  हार्डिन का यह लेख विश्व में सबसे अधिक उद्धृत किये जाने वाले प्रबंधों में एक है। इसे अध्ययन के हर क्षेत्र में उद्धृत किया गया है। हालाँकि  इस लेख के बाद कई शोधकर्ताओं ने इस लेख को जांचने के प्रयास किया। एलिनोर ओस्ट्रॉम ऐसे शोधकर्ताओं की न सिर्फ अग्रिम पंक्ति में हैं बल्कि उनका नेतृत्व भी करती हैं। 

एलिनोर ओस्ट्रॉम अपने शोध में ऐसे आठ सिद्धांतों की बात करती हैं जो यदि किसी साझा संसाधन के प्रबंधन में पाए जाएं तो उसकी सफलता की संभावना काफी अधिक हो जाती है।  यह सिद्धांत हैं- 

१. स्पष्ट रूप से परिभाषित होना (साझा संसाधन की सीमाओं और उसका इस्तेमाल करने वालों की स्पष्ट पहचान होना और बाहरी गैर-हकदार पार्टियों के प्रभावी बहिष्करण);
२. स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल संसाधनों के उपयोग और रखरखाव के कानून। माने एक ही साइज़ का जूता सबको पहनाने की कोशिश न हो। हर समुदाय की स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार व्यवस्थाएं हों। 
३. निर्णय लेने की प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने की व्यवस्था 
४.  मॉनिटर्स द्वारा प्रभावी निगरानी होना आवश्यक है। सामुदायिक संसाधन सिर्फ भलमनसाहत पर नहीं मैनेज किये जाते, ठोस जवाबदेही के आधार पर मैनेज होते हैं। 
५.  समुदाय के नियमों का उल्लंघन करने वालों के लिए अपराध की गंभीरता के अनुसार प्रतिबन्ध (graduated sanctions ) या जुर्माना की व्यवस्थाएं यह सुनिश्चित करती हैं कि सामुदायिक संसाधनों का प्रबंधन  दौरान गाँव या समुदाय के लिए उन्हें मानना संभव हो, और वह अमानवीय न लगे 
६. विवादों की स्थिति में उन्हें सुलझाने की सस्ती और असरदार व्यवस्था होनी चाहिए 
७.  सामुदायिक संसाधनों पर लोगों के अधिकार और समुदाय द्वारा लागू की गयी व्यवस्था को उच्च स्तरीय अधिकारियों द्वारा मान्यता देना ;
८.  तथा बड़े साझा  संसाधनों के मामले में (जैसे कि मान लीजिये, एक बड़ा, बहुत बड़ा तालाब जिस पर कई गाँव और शहर के लोग निर्भर करते हों), कई स्तरों पर संगठन हो, जो स्थानीय इकाइयों के भागीदारी पर आधारित हो 

ये सिद्धांत कई रूपों में हमें अपने चारों ओर देखने को मिलेंगे। इनकी मदद से हम अपने साझा संसाधनों की व्यवस्था का आंकलन आसानी से कर सकते हैं। यह भी एक रोचक तथ्य है की एलिनोर ओस्ट्रॉम के शोध में बहुत से उदहारण भारतीय उपमहाद्वीप से ही लिए गए। एलिनोर ओस्ट्रॉम ने खुद पश्चिमी नेपाल में सिंचाई व्यवस्थाओं का अध्ययन किया था। 

शोध की दुनिया से निकल कर यदि हम अपने आस पास कॉमन्स को खोजें तो हमें यकायक यह एहसास होगा कि हम तो इनसे सब तरफ घिरे हुए हैं। भारत जो दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है, असल में अपने दूध उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा ऐसे इलाकों से प्राप्त करता है जहाँ चारा अधिकतर सामुदायिक चरागाहों से आता है। हमारा क्षेत्रफल इतना नहीं है कि हम सारा चारा निजी खेतों पर ऊगा सकें।  एक तरह से हमारे साझा संसाधन देश के दूध उद्योग को सब्सिडी देते हैं। इसी तरह देश के  लगभग 67 प्रतिशत ग्रामीण  परिवार  आज भी ईंधन के लिए साझा संसाधनों से लायी गयी लकड़ी पर निर्भर है। जरा सोचिये कि यदि इतने लोगों को लकड़ी खरीदनी पड़े या ईंधन खरीदना पड़े तो हमारे देश की भूख की समस्या कितनी विकराल हो जायेगी। एक मोटा अंदाज़ा लें तो यदि एक परिवार एक दिन में मात्र २ किलो लकड़ी प्रयोग करता है तो सामुदायिक संसाधनों से सिर्फ ईंधन के लिए लकड़ी लेकर ग्रामीण परिवार एक वर्ष में ४०  हज़ार करोड़ से ज्यादा की बचत करते हैं। पारिस्थितिकी तंत्र को सुचारु रूप से चलाने में कॉमन्स का महत्व की तो अंकों में व्याख्या की ही नहीं जा सकती।

पर हमारी आज की व्यवस्था जोकि एक साम्राज्यवादी व्यवस्था की पृष्ठभूमि से निकली है, काफी बड़े और प्रगतिशील वैधानिक सुधारों के बावजूद कॉमन्स की अवधारणा को जमीन पर उतारने में अक्षम सिद्ध हो रही है। इसका नतीजा यह है कि जहाँ पिछले ४० सालों में कॉमन्स अध्ययन की दुनिया में एक व्यापक और स्थापित क्षेत्र बन गया है, हमारी व्यवस्था में उसकी कोई जगह नहीं दिखाई देती। हम साझा संसाधनों  की व्यवस्थाओं की समस्याएं तो गिनाते हैं पर उन समस्याओं के गहरे कारणों का विश्लेषण नहीं करते।  इस कारण अंततः हमें अपनी लोकनीतियों में साझा संसाधनों की  झलक नहीं दिखाई देती। 

ये साझा संसाधन सिर्फ गाँव में नहीं हैं। आज हम इंटरनेट युग में ज्ञान को एक साझा संसाधन के रूप में देखने की कल्पना करते हैं। जरा सोचिये की यदि इंटरनेट आसानी से उपलब्ध न होता तो आज मार्क ज़ुकेरबर्ग सिर्फ मार्क होते। या यदि पूरी दुनिया सॉफ्टवेयर के लिए सिर्फ माइक्रोसॉफ्ट पर निर्भर होती तो? हम कत्रिम बुद्धिमत्ता के युग में जी रहे हैं।  एक ऐसे युग में जब अमीर और गरीब के बीच की खाई सबसे गहरी है। ऐसे  में हम एक दूसरे के साथ यदि संसाधन बांटना नहीं सीखेंगे तो इस दुनिया की प्रगति ही इस दुनिया का भस्मासुर बन जायेगी। 

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