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उत्तर विकासवाद क्या है - कड़ी-1

मंडला में देशी मक्के की किस्में-कुछ दिनों में शायद बीते कल की बात बन जाएँ  कुछ समय पहले मेरे एक  दोस्त ने जोकि मेरी तरह एक गैर सरकारी संस्था में ग्रामीण विकास के लिए कार्य करता है, एक दिलचस्प किस्सा सुनाया।  उसने बताया के वह एक अजीब अनुभव से गुज़र रहा है। मेरा दोस्त बहुत समय से मंडला के एक गाँव में किसी परिवार के साथ मचान खेती पर काम कर रहा था। मचान खेती सघन खेती का एक मॉडल है जिसमें एक समय में एक जमीन के टुकड़े से कई फसलें ली जाती हैं, कुछ जमीन पर और कुछ जमीन से उठ कर मचान पर, बेलें चढ़ाकर । जिस परिवार को उसने प्रेरित किया, उसने पहले साल ज़बरदस्त मेहनत की और बड़ा मुनाफा कमाया। दूसरे साल भी परिवार के साथ वो काम करता रहा। और नतीजा फिर बढ़िया निकला।  तीसरे साल उसने सोचा के परिवार अब तो खुद ही मचान खेती कर लेगा। बरसात के आखिरी दिनों में मेरा दोस्त उस परिवार से मिलने गया। वहां जो उसने देखा, उससे वो भौंचक्का रह गया। उसने देखा की मचान खेती नदारद थी। उसकी जगह पारम्परिक खेती ले चुकी थी।  उसने घर के महिला से पूछा-  "काय दीदी, इस बार मचान नहीं लगाए ?" दीदी बोली - &qu

क्या भारत में कोई बच्ची ग्रेटा थन्बर्ग हो सकती है?

आपने ग्रेटा थन्बर्ग  का नाम सुना है? गार्जियन अखबार से साभार, no copyright infringement is intended स्वीडन की ये लड़की अभी  18 की भी पूरी नहीं हुयी है। पूरी दुनिया में मशहूर हो चुकी इस लड़की ने लाखों लोगों की भावनाओं को झकझोरा और किशोरों की एक बड़ी लड़ाई को जन्म दिया जो "स्कूल स्ट्राइक फॉर क्लाइमेट"  से जानी  जा रही है। इस आंदोलन ने यूरोप की  ग्रीन पार्टियों को वापस मुख्यधारा में ला दिया। यूरोप के कई देशों ने आंदोलन के दबाव में जलवायु परिवर्तन की  अपनी नीतियों में बड़े संशोधन किये। स्कूली बच्चों  और युवाओं का एक विश्वव्यापी आंदोलन ग्रेटा कैसे खड़ी कर पायी, इतनी कम उम्र में? ऐसी हिम्मत उसमें कहाँ से आयी? मैं कई दिनों से यही सोच रहा हूँ। 8 वर्ष की उम्र में ग्रेटा को जलवायु परिवर्तन के बारे में पता चला। और 15 वर्ष की उम्र तक उसके अंदर इस विषय को लेकर गहरी चिंता बैठ गयी। राजनीतिज्ञों की अकर्मण्यता और विशेषकर सयाने लोगों के दोगलापन उसकी बर्दाश्त के बाहर था। सबसे पहले उसने अपने माँ-बाप को मजबूर किया के वह अपनी आदतें बदलें। कई सालों तक बेटी के कठिन सवालों से जूझते रहने के बाद, ग

बढ़ती जीडीपी और सूखती नदियाँ

खबर हुयी है के देश का सकल घऱेलू  उत्पाद यानीकि जीडीपी जल्द ही 5 लाख करोड़ डॉलर पहुँच जायेगा। बड़ी ख़ुशी की बात है । इसका मतलब है हमारा देश लगभग 350 लाख करोड़ रूपए मूल्य का उत्पादन हर वर्ष करेगा। इतने शून्य लगेंगे इस संख्या में के कोई गिनते गिनते बेहोश हो जाए तो अचरज नहीं होना चाहिए।  मुझे उम्मीद है के नोटों की इस बाढ़ में मेरा भी हिस्सा लगा होगा। कुछ पैसा मैंने भी शेयर बाजार में लगा रखा है, आजकल के किसी भी आम नौकरी पेशा आदमी की तरह। मुझे उम्मीद है के मुनाफा होगा। और मुझे ये भी उम्मीद है के मेरे प्रोविडेंट फण्ड की ब्याज दर भी न घटेगी। अब ये चमत्कार कैसे होगा इस फलसफे में न पड़ें तो अच्छा है।  फिलहाल हमारी चिंता कुछ और है।  इस मुई जीडीपी के चक्कर में हमें लगता है के हमारी गंगा मैया हमसे रूठ गयीं हैं।क्या है कि पिछले सत्तर सालों में जितनी तेजी से जीडीपी बढ़ी, उतनी तेजी से गंगा मैया गायब हुयी। नर्मदा मैया तो और भी ज्यादा रुष्ट हैं। पिछले कुछ महीनों में खूब खबर छपी के  नर्मदा मैया अंतर्ध्यान हो गयी गर्मियों में। हमारे मन को चिंता हुयी के अगर जे ऐसे ही अंतर्ध्यान रहीं, तो अपने रपटा घाट व

समझने वाले और समझाने वाले

हमारे यहाँ समझाने वाले बहुत हैं.. बहुत कम हैं समझने वाले.. और उससे भी कम समझ कर समझाने वाले.. सुनने वाले भी बहुत हैं..जैसेकि समझाने वाले बहुत हैं.. वक़्त नहीं है समझने का.. जल्दी बहुत है सबको.समझें कैसे.. समझने में वक़्त लगता है..मन दुखता है..और दिमाग पर ज़ोर भी पड़ता है.. पर यूँ ही बिना समझे ज़िन्दगी तो चल ही सकती है..समझाने वालो के भरोसे.. जिनके शोर में समझने वाले खो गए हैं.. हमने आदत डाल ली न समझने की.. पर समझाने वाले बाज़ आते नहीं.. क्या करें.. तो हम भी समझते नहीं।।बस सुनते हैं.. कबीर की  बातो से लगता है के वह सिर्फ समझना चाहते थे.. दोहे में अपनी समझी हुयी बात पिरोते थे.. और फिर समझने वाले समझ जाते थे.. अगर कोई सुन के समझे तो अच्छी बात नहीं तो..कबीरा अपने रस्ते.. मैं भी समझना चाहता हूँ.. समझाना  गैर-इरादतन है. अगर कोई सुन के समझे तो अच्छी बात, नहीं तो..कबीरा अपने रस्ते..