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लैंटाना के डॉक्टर- (डॉ भरत सुंदरम के साथ बातचीत के कुछ अंश)



डॉ भरत सुंदरम 
साथियों, डॉ भरत सुंदरम देश के गिने चुने इकोलॉजी विशेषज्ञों में से हैं जिन्होंने आक्रामक झाड़ियों (invasive shrubs ) पर गंभीर शोध किया है। पिछले लगभग 20 वर्षों से वह लैंटाना पर शोध कर रहे हैं। वर्तमान में वह krea University, चेन्नई में पढ़ाते हैं। उनके मंडला आगमन पर हमें उनसे बातचीत का सौभाग्य मिला। उनसे बातचीत के कुछ अंश यहाँ हम आपसे बाँट रहे हैं। यूँ तो इस बातचीत को हमने रिकॉर्ड किया था। पर वह इतनी लम्बी हो गयी के अब हम उसे पूरा आपके साथ नहीं बाँट पा रहे। इसके लिए हम आपसे  क्षमाप्रार्थी हैं।

तो पेश हैं उनसे बातचीत के कुछ अंश

मैं कबीर- डॉ भरत हमें थोड़ा बताइये के आप की रूचि सोशल इकोलॉजिकल सिस्टम्स में कैसे आयी जबकि आपने अपना करियर तो  एक species विशेषज्ञ के रूप में शुरू किया था। आपने ये बदलाव अपने कॅरियर में क्यों लाया। 

मैं शुरुआत में तो wildlife biology में पढाई करना चाहता था। बाद में पता लगा कि इकोलॉजी में ही वाइल्डलाइफ बायोलॉजी पढ़ सकते हैं। मुझे लगा कि इकोलॉजी पढ़ने से मेरा worldview बेहतर होगा।  तो पॉन्डिचेरी यूनिवर्सिटी से इकोलॉजी में पोस्ट-ग्रेजुएशन किया। वहां अपने dissertation के लिए मुझे तमिलनाडु के नमक्कल जिले के जंगल में  अपना फील्डवर्क के लिए जाना पड़ा। वहां पहली बार मुझे जंगल के आसपास रहने वाले लोगों के साथ रहने का अनुभव हुआ।बाद में बहुत से काम स्पीशीज संरक्षण पर ही किये, खास तौर पर टाइगर रिज़र्व में।  मैंने असम और अरुणाचल में काम किया और मध्य भारत के चार टाइगर रिज़र्व में काम किया।यहाँ मेरा सामना स्थानीय लोगों की परेशानियों से हुआ। मुझे दिखाई देने लगा के इन लोगों का जीवन जोखिम भरा है, और तकलीफें बहुत हैं। जंगल के बिना गुज़ारा नहीं और वन विभाग का डर भी था ज़बरदस्त।
हम शहर के लोग इस सब को नहीं समझ सकते।बेहद गैर-बराबरी भी दिखी मुझे। इसके साथ साथ उस समय मुझ पर जो सोच हावी हुई, उससे यही मतलब निकलता था कि जंगल सिर्फ एक इकोलॉजिकल सिस्टम नहीं, सोशल इकोलॉजिकल सिस्टम है। और हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि बिना लोगों को साथ में लिए संरक्षण संभव नहीं है।

लेकिन अधिकतर संरक्षणवादी संवादों में वनवासी समाज को खलनायक के जैसा पेश किया जाता है, चाहे आप सैंक्चुअरी एशिया मैगज़ीन पढ़ लीजिये या कोई और पत्रिका उठा लीजिये , आपको यही दिखाई देता है । इससे मुझे लगा कि इस बारे में मुझे और पढ़ना चाहिए। जब मैंने अपनी 2006 में Ph.D की पढाई शुरू की तब ये तय किया कि सिर्फ लैंटाना के जंगल पर होने वाले प्रभाव नहीं  बल्कि लोगों पर होने वाले प्रभाव और उनका पारम्परिक ज्ञान भी मुझे समझना चाहिए। और यहीं मेरे काम में सोशल-इकोलॉजिकल सिस्टम की समझ का असर पड़ने लगा। जब B.R.T. हिल्स के जंगलों में लैंटाना पर मैंने सोलिगा आदिवासियों के साथ काम करना शुरू किया तो ये बात  और स्पष्ट हो गयी कि उनका ज्ञान लैंटाना के बारे में वन विभाग से कहीं ज्यादा था। वन विभाग का ये अहंकार के आदिवासी नहीं जानते जंगल के बारे में जितना वन विभाग जानता है, थोड़ा खोखला लगता था। इस disconnect के कारण वन विभाग और वनों का नुक्सान भी होगा और समाज का भी।

मैं कबीर- आपकी बात से ऐसा लगता है कि आदिवासियों का रिश्ता जंगल से आज भी जीवित है। पर ये बात सही है कि आदिवासी समाज भी बदल रहा है और शहरी लोगों का उनके प्रति नजरिया भी।  आपको ऐसा लगता है कि आदिवासी समाज आज भी संरक्षण वादी है? क्या वह कोई विनाशकारी भूमिका नहीं निभा रहा। 
देखिये, विनाशकारी भूमिका में तो हम सभी हैं। हम बिजली का इस्तेमाल करते हैं, जमीन पर कब्ज़ा करते हैं, पानी का जबरदस्त दोहन करते हैं पर हमारी चोरी पकड़ी नहीं जाती। ऐसा ही जब एक वनवासी को घर में खाना चाहिए और बच्चों को स्कूल भेजना है तो उनके लिए भी आसान है एक पेड़ काटना और उससे अपना घर चलाना। पर जब संरक्षणवादी यह सोच कर निर्णय ले लेते हैं कि वनवासियों को जंगल में घुसने से रोकना है, तब वह अपने बारे में नहीं, किसी और के बारे में निर्णय ले रहे होते हैं।

मैं कबीर- वनवासियों के जीवन और आधुनिकता को कैसे एक साथ देखेंगे। 

माइकल सहलिन्स की किताब "द ओरिजिनल  एफ्लुएंट सोसाइटी" हमें यह बताती है कि अफ्रीकी आदिवासी समुदाय जो कि मुख्यतः वनवासी थे, असल में आधुनिक समाज से कहीं ज्यादा संपन्न थे। बस मायने अलग थे सम्पदा के। जैसे वह "समय" के मामले में हमसे कहीं ज्यादा संपन्न थे। उनके पास आराम का वक़्त था जो आधुनिक समाज में बिलकुल नहीं दिखता। मुझे तो कमसे कम उनमें और मुझमें ज्यादा फ़र्क़ नहीं दिखता।

मैं कबीर- इतना तो साफ़ है कि अगले 20 सालों तक आदिवासी कहीं नहीं जा रहे हैं। वह न तो जंगल छोड़ रहे हैं न उनकी शहरों में कोई जगह हमने बनाई है। तो अगले 20 साल तक उनके लिए रहने की जंगल से बेहतर जगह हम नहीं ढूंढ पाएंगे। इसलिए उनके जीवन में वन विभाग से टकराव बना रहेगा। यदि हम इस सच्चाई को स्वीकार कर लेते हैं के आदिवासी जंगलों के साथ रहते ही रहेंग, ऐसे में आपको आगे क्या राह दिखाई देती है ?

सोलिगा आदिवासियों और सभी आदवासियों में इसको लेकर तकलीफ है कि जंगल के प्रबंधन में उनकी कोई भूमिका नहीं हैं।हम अब वैज्ञानिक ज्ञान से आगे किसी और ज्ञान को अपनाने को तैयार ही नहीं होते। वनवासी और आदिवासी ये सवाल उठाते हैं कि जंगल आखिर किसका है? काफी सारी संस्थाओं ने इस पर कोशिश की है कि आदिवासी जंगल के प्रबंधन में शामिल हों पर कोई ख़ास सफलता अभी तक नहीं मिली है।
बी आर हिल्स -द हिन्दू अखबार से साभार 


मैं कबीर-आपके लैंटाना का काम के बारे में हमें थोड़ा बताइये

लैंटाना का काम मैंने शुरू किया 2005-06 में। मैं लकी था कि बिलिगिरि रंगस्वामी टाइगर रिज़र्व में पहले 1997 में लैंटाना का डेटा इकठ्ठा किया गया था। उससे मेरे रिसर्च को काफी बल मिला। आज हमारे पास तीस साल का डाटा है जो लैंटाना के फैलाव, उसके कारण उसके प्रभावों का गहन अध्ययन करने में सहायक है। मेरे काम में जो सबसे महत्वपूर्ण खोज है वह है लैंटाना को रोकने में low intensity surface fire का महत्त्व। सोलिगा आदिवासियों के अनुसार जब वह झूम खेती या shifting cultivation करते थे तो उसमें low intensity surface fire का इस्तेमाल करते थे। इससे लैंटाना या उस जैसे विदेशी छोटे पौधे नष्ट हो जाते थे और अच्छी घास पैदा होती थी।साल दर साल ऐसा करने से लैंटाना की बढ़वार रुकी रहती थी।  पर जब से जंगल में आग का प्रयोग पूरी तरह बंद कर दिया गया है, लैंटाना बुरी तरह से जंगल पर हावी हो गया है। जो देशज प्रजातियां हैं, वह इस आग को झेलना जानती हैं। और उनपर इसका प्रभाव कम पड़ता है और इससे विदेशी प्रजातियां ज्यादा प्रभावित होती हैं।
अब high intensity fire या बड़ी आग लगती है। बड़ी आग का तापमान बहुत होता है और उससे देशज प्रजातियां भी नहीं बच पाती। पर लैंटाना के बढ़ने से बड़ी आग लगने में भी तेजी आयी है। उससे देशज या नेटिव प्रजातियों को हानि पहुँचती है और फिर उनके हटने से और लैंटाना के पौधों को रौशनी मिलने से लैंटाना और तेज फैलता है।

लैंटाना और आग का सम्बन्ध 


मैं कबीर- लैंटाना के जंगल पर पड़ने वाले असर के अलावा और क्या नुक्सान हैं?
लैंटाना बढ़ने से जो साइड इफ़ेक्ट है, वो है कि घास कम हो जाती है, और उसके लिए  मनुष्य और जानवर के बीच टकराव बढ़ जाता है।जंगली सूअर और अन्य जानवर घास के अभाव में सोलिगा आदिवासियों की रागी और मंडिया की फसल खा जाते हैं। उन्हें जंगल से शहद और अन्य वन उत्पाद इकठ्ठा करने में तकलीफ होती है। कुल मिला के सोलिगा आदिवासियों के लिए भी यह बड़ी समस्या है। वन विभाग के लिए तो है ही। इससे वन्य जीवों का रहवास भी खतरे में है।





मैं कबीर- तो मुख्य रूप से आप यह कहना चाहते हैं कि यदि लोगों का ज्ञान जंगल के  प्रबंधन में शामिल होता तो शायद बेहतर होता। और बी आर हिल्स के लैंटाना के पीछे ये बेहद बड़ा कारण है। 
बिलकुल और सिर्फ वहीँ नहीं, सब जगह।

मैं कबीर- हमारे और हमारे पाठकों और श्रोताओं की तरफ से बहुत बहुत धन्यवाद। 
थैंक यू।

और अधिक जानकारी के लिए पढ़िए-

https://www.thehindu.com/news/national/karnataka/fires-were-in-lantana-infested-area-at-brt-reserve/article17522794.ece

लैंटाना पर एक बेहतर फिल्म है नीचे-
https://www.youtube.com/watch?v=eZ58JobbdXs&t=1s



Comments

  1. got a new perspective and learned the relationship between community and forest and how these invasive shrubs affecting the whole ecosystem of forest and others.

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  2. Wow! Wonderful interview, very we'll structured and presented. Thank you Ishan for this.

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