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क्या ग्लोबल हंगर इंडेक्स और जंगल का कोई कनेक्शन है?


हिंदी न्यूज़क्लिक से साभार 
ताजा ताजा आयी "ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट" में भारत के दयनीय प्रदर्शन पर आजकल बहुत चर्चा हो रही है। हम 117 देशों की सूची में 102 वें स्थान पर हैं। ये तो जाहिर है के स्थिति ठीक नहीं है।  लिहाजा कुछ अखबारों के  पन्ने इस चर्चा में थोड़े बहुत काले हुए हैं।  एक और खबर साथ में थी जिसकी वजह से इस खबर का इकबाल और बुलंद हो गया । वह यह कि हमारे खाद्यान्न भंडार अब इतने  बड़े  हो गये  हैं  कि भारतीय खाद्य निगम यानि FCI  यह सिफारिश कर रहा है कि हमें अपना अनाज गरीब मुल्कों में निर्यात कर देना चाहिए। कम से कम कहीं तो गरीबों का पेट भरे। हमारे देश में न सही, अफ्रीका या अफ़ग़ानिस्तान में सही। ये चमत्कार भारत में ही हो सकता है कि एक तरफ भुखमरी है और दूसरी तरफ सड़ते हुए अनाज के गोदाम। 

मन हुआ इस पर थोड़ी बात की जाए!! ग्लोबल हंगर इंडेक्स है क्या, पहले इसे  समझा जाए। फिर उसके बाद थोड़ी तफ्तीश की जाए की ये ससुरा कुपोषण होता क्यों है आखिर। जहाँ तक मुझे समझ आया है, ग्लोबल हंगर इंडेक्स भुखमरी से ज्यादा कुपोषण को नापता है।दोनों के बीच रिश्ता तो है। पर दोनों एक बिलकुल नहीं हैं। मुझे लगता है कि देश में कुपोषण ज्यादा है, भुखमरी कम। ग्लोबल हंगर इंडेक्स तीन मानकों से बनता है। पहला और मुख्य मानक है पूरी आबादी के लिए भोजन की पर्याप्त आपूर्ति न होना। दूसरा मानक है पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर।  और तीसरे मानक में दो मानक छुपे हुए हैं।  पहला है स्टंटिंग यानी बच्चों की उम्र के अनुसार उनकी लम्बाई का अनुपात और दूसरा है वेस्टिंग यानी  बच्चों की उम्र के अनुसार उनके वजन का अनुपात। रिपोर्ट को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि पहले मानक पर तो हमारा प्रदर्शन पिछले 15-20 सालों में सुधरा है।  पर बच्चों की स्थिति में कुछ ख़ास बदलाव नहीं आया है। उम्र के साथ लम्बाई का बढ़ना और उम्र के साथ वज़न बढ़ने का जो अनुपात होना चाहिए, उस हिसाब से हम अभी बहुत पीछे हैं।

अर्थ यह है कि हम और हमारे बच्चे खाने की कमी से नहीं "पौष्टिक" खाने की कमी से जूझ रहे हैं। पिछले 70 सालों में ऐसा क्या किया हमने जो ये हालत हुई? क्या वजहें हैं कि भूख और कुपोषण की समस्या सुलझती नहीं। जवाब पेचीदा है पर मुश्किल नहीं है। हम भूख और कुपोषण से जुड़े हुए सवालों के आधे अधूरे जवाब ढूंढ रहे हैं। सीधे उनसे टकराते नहीं। चलिए, इस सवाल की उलझी हुयी लम्बी गहरी जड़ों में से कुछ को सुलझाने की कोशिश करते हैं। 

आपको 200 साल पहले के समाज में लिए चलते हैं। ब्रिटिश शासन के पहले इतिहास में एक भी समय ऐसा नहीं जिसकी तुलना बंगाल के 1770 या 1943 के गंभीर अकालों से की जा सके। मध्यकालीन भारत में भी एक गरीब आदमी के खाने में गुड़ और घी था, भले ही पहनने के लिए कपडे नहीं थे। आज़ादी तक अंग्रेज़ों के जमाने में हमने भयानक अकाल देखे। अमर्त्य सेन के शोध ने इस बात को साबित किया कि ये अकाल कोई प्राकृतिक नहीं थे, बल्कि अंग्रेज़ों के शोषण का नतीजा थे।

पर एक और  कारण पर अमर्त्य सेन या कोई भी अर्थशास्त्री गौर नहीं फरमाते। वह है तेजी से बदल रहा भू परिदृश्य। अंग्रेज़ों के कानूनों के कारण जंगल कटे, जमीन पर सरकारी कब्ज़ा मजबूत हुआ। और कुछ लोगों की पूरी जीवन शैली रातों रात अवैध करार दे दी गयी।  ब्रिटिश शासन से पहले देश में कई किस्म की जीवन शैलियाँ थी । ग्रामीण अंचलों की बात करें तो उनमें मुख्य थे- खेती, पशुपालन, जंगल आधारित जीवन, मछुआरे, और कुछ अन्य हस्त-शिल्प।  ब्रिटिश शासन और उसके बाद ब्राउन साहिब शासन ने इसमें से घुमक्कड़ पशु-पालक और जंगल में रहने वाले लोगों की जीवन शैली पर घोर कुठाराघात किया। उनकी पहचान हमेशा के लिए बदल दी गयी। उनका स्वाभिमान ख़त्म कर दिया गया। उन्हें अपराधी घोषित कर उन्हें एक अंधी गली में धकेल दिया जिससे वह आज तक नहीं निकल पा  रहे हैं। 

जंगल से महुआ लाती बैगा महिला -FES के फोटो भंडार से साभार 
लगान के भूखे ब्रिटिश शासन और हमारे दिमागों पर उनके असर ने सिर्फ एक जीवन शैली को बेहतर माना, वह थी ठहरी हुयी खेती। बाकी सबको हमने हाशिये पर खड़ा कर दिया। अब तो खेती भी तेजी से अपना अर्थ खोते जा रही हैं।  2016 में डाउन टू अर्थ मैगज़ीन के एक लेख के अनुसार देश में करीब 3.5 करोड़ घुमक्कड़ पशुपालक हैं। ये उनसे अलग हैं जो एक ही जगह रह कर पशु चराते हैं।किसी अन्य आंकड़े के हिसाब से देश में 35 करोड़ लोग सीधे जंगलों पर निर्भर हैं अपनी आजीविका के लिए। सोचिये जब ये 35 करोड़ लोग जब पूरी तरह से ठहरी हुयी खेती यानी settled agriculture को अपना लेंगे तो जमीन पर दबाव कितने गुना बढ़ जाएगा। मंडला जैसी जगह पर गर्मी में पानी की किल्लत सुनने में आ रही है। दरअसल पिछले 100 सालों में मंडला में सघन खेती इतनी ज्यादा बढ़ गयी है और जंगल पर आय और भोजन के लिए निर्भरता इतनी कम हो गयी है कि जहाँ पानी प्रचुरता में उपलब्ध था, वह अब एक कीमती संसाधन में बदल गया है।

जगन्नाथ धाम जाइये कभी। वहां एक हज़ार सालों से एक ही प्रकार का भोजन बन रहा है। उसमें जिन सामग्रियों का उपयोग होता है, उन्हें देखिये। क्या वह सब कुछ खेत में उगता है? दरअसल हमारे गोचर और जंगल सदा से हमारे लिए अक्षय भोजन पात्र का काम करते थे। पर हमने उन्हें नकार दिया और आज हमें कुपोषण का सामना  करना पड़ रहा है। मसलन मंडला में लोग महुआ का खाने में उपयोग भूल रहे हैं। इससे शर्मनाक बात और क्या हो सकती है। नीति निर्माताओं और अपने आप को मसीहा कहलाने वाले नेताओं, नौकरशाहों को समझ में ही नहीं आता कि चक्कर क्या है। मंडला के गाँव में अपने ही खाने को लेकर हीन  भावना पैदा की गयी है 200 सालों में।  आज एक आदिवासी महिला को लगता है की मुनगा यानी moringa खाने से अपच हो जाएगा, आंवला खाने से दर्द हो जाएगा, ज्यादा अमरुद या सीताफल  खाने से ठण्ड लग जायेगी। अपने ही घर, अपने ही जंगल में मिलने वाले भोजन के प्रति  इतना भ्रम कैसे है!! जरा सोचिए!!

यदि सब लोग खेती में ही अपना जीवन ढूंढने लगेंगे और हम उनका रिश्ता प्रकृति से तोड़ देंगे, तो जमीन पर इतना दबाव पड़ेगा कि भुखमरी, जमीन का बेलगाम शोषण, और कुपोषण तो बढ़ेगा ही।

Comments

  1. भारत की ताजा स्थिति चीन, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका जैसे कई पड़ोसी देशों से भी खराब हो चुकी है. गरीबी और भूख को हटाने का एक सूत्रीय विकास का एजेंडा भी दुनिया की सबसे तेज विकासशील अर्थव्यवस्था होने के बावजूद भारत के लिए एक सपना जैसा प्रतीत हो रहा है.

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