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गाँधी, भगत सिंह, अम्बेडकर- खंड 1






शीर्षक के नाम आपको लेख पढ़ने के लिए मजबूर करने के लिए थे। नहीं तो मेरा मानना है कि नामों को विचारों से जोड़ना, उन लोगों के साथ ज़्यादती है जिनके नाम से वह विचार जुड़ जाता है। विचार या विचारधारा अपने आप में इतनी परिष्कृत होती है कि उसे किसी पर भी लादना, चाहे वह उस विचार का मूल प्रणेता ही क्यों न हो, यह उसके प्रति एक प्रकार की हिंसा है। कोई भी विचारधारा एक आदर्श मानव या आदर्श जीवन का सपना दिखाती है।  और एक आदर्श विचार और आदर्श व्यक्ति के जीवन में थोड़ा फ़र्क़ होना तो लाजिमी है।  इसलिए, हम इस लेख में गाँधी, अम्बेडकर  और भगत सिंह के विचारों की बात करेंगे, उनके व्यक्तित्वों की नहीं। और इन व्यक्तियों के  ऐतिहासिक विरोधों में न फंसते हुए, क्या इन तीनों को गूंथा जा  सकता है? इसी सवाल से जूझने की कोशिश यह लेख कर रहा है। मैं पूरी बात एक कड़ी में नहीं कह सकता इसलिए अपनी बात को तीन-चार खण्डों में कहने की कोशिश करूंगा। 

 गाँधी, भगत सिंह और अम्बेडकर । आधुनिक भारत के इतिहास में ये तीनों हिमालय के महान शिखरों से हैं। कोई और नाम इनके आसपास भी नहीं पहुँच पाते। इनकी गहराई इस तरह समझी जा सकती है भारत में इस समय मौजूद कोई भी राजनीतिक या बौद्धिक पक्ष इनके बताये मार्ग पर चले या न चले, इनके व्यक्तित्व और कृतित्व का खंडन नहीं कर सकता। राजनीतिक पक्षों में इनकी विरासत पर कब्ज़ा करने की होड़ बहुत पुरानी है और इन दिनों तो यह बड़ी गलाकाट हो गयी है।मुझे महसूस हो रहा है कि बहुत से चिंतक (रामचंद्र गुहा उनमें से एक हैं) जोकि इस प्रयास में हैं कि किसी तरह इन तीनों के विचारों के बीच पुल बांधे जा सकें। मुझे नहीं मालूम कि विश्वविद्यालयों, कॉफ़ी हॉउसों, ढाबों या फेसबुकियों में यह बहस कहाँ तक पहुंची है।  मैं ये पहले ही कहना चाहता हूँ के मैं कोई बहुत बड़ा विचारक नहीं हूँ। न मैंने बहुत अध्ययन किया है। जो मन को लग रहा है बहुत दिनों से, सो लिख रहा हूँ। अगर किसी को बुरा लगे तो माफी।

भारतीय मानस में यह तीन नाम तो बहुत गहरे धंसे हुए हैं। इसलिए इन नामों से हट कर, इनको तीन प्रमुख विचारों का प्रतीक मान लेते हैं जिन्हें इन लोगों ने अपनाने का प्रयास किया। पहली है गाँधी की सर्वोदयी विचारधारा। दूसरी विचारधारा जिसे अम्बेडकर से जोड़ा जाता है, वह है संवैधानिक  विचारधारा (constitutionalism ) और तीसरी विचारधारा जिसे भगतसिंह से जोड़ा जाता है, वह है वामपंथी आदर्शवाद (मुझे नहीं पता कि ये नाम वाकई है किसी वाद का, पर ये नाम भगतसिंह के विचारों के सबसे करीब लगा) जिसे लगभग भुला दिया गया है।

पहले सर्वोदयी विचारधारा में झांके। सर्वोदय यानी सबका उदय। "सर्वोदय" सर्वोदयी विचारधारा का लक्ष्य है, "सत्याग्रह" उसे प्राप्त करने का मार्ग और "अनासक्ति" खुद को प्रशिक्षित करने का एक तरीका है जिससे आप स्वानुशासित होते हैं। सर्वोदय एक सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्वराज प्राप्त करने का चिंतन है, जोकि एक विकेन्द्रीकृत व्यवस्था का पक्षधर है। यह विचारधारा एक ग्राम आधारित व्यवस्था की कल्पना करती है जहाँ राजनीतिक सत्ता, अर्थव्यवस्था, पर्यावरण, स्थानीय कानून, सामाजिक व्यवस्था -सब ग्राम समाजों की नियंत्रण में होंगी।इस विचारधारा को सिर्फ गांधी से जोड़ना नाकाफी है हालांकि अधिकतर लोग यही मानते हैं।  इसके मुख्य प्रणेताओं में विनोबा भावे, कुमारप्पा, जयप्रकाश नारायण जैसे कई विद्वानों के नाम गिने जा सकते हैं। विदेशी विचारकों में शूमाकर, जॉन रस्किन के विचारों ने सर्वोदय के विचार की नींव रखी।  पर्यावरण और पारिस्थितिकी की नज़र से देखें तो सर्वोदयी व्यवस्था, मनुष्य और प्रकृति के सामंजस्य पर जोर देती हुयी लगती है, वह एक मनुष्य को एक "economic man " की तरह नहीं देखती है पर एक "संरक्षणकारी मानव" के रूप में देखती है। पूरी व्यवस्था मानो आदमी के बढ़ते लालच को रोकने के लिए खड़ी होती है। 
भारतीय जनमानस पर आज सर्वोदयी विचारधारा और प्रतीकों का क्या प्रभाव बचा है? अहिंसा, त्याग और सत्य, तीनों ही आज फैशन से बाहर हैं।  पर प्रकृति के प्रति आदमी का क्या रुख होना चाहिए, इस बात की व्याख्या पर ज़रूर कई लोग अपने अपनेतरीके से वहीँ  पहुंचे हैं जिसके बारे में सर्वोदयी शुरू से कहते आये हैं। साधारण सी बात है- धरती पर सब के लिए बहुत है पर किसी एक के भी लालच के लिए भी ये धरती कम पड़ जाती है। इस विचार से निकलती हुई जीवन शैली पूरी दुनिया में लाखों को अभी भी प्रभावित करती है और कर रही है। इस दुनिया में पहला शोषण प्रकृति का मनुष्य के हाथों हुआ और चूँकि बाकी सारे प्रकार के शोषण की बुनियाद प्रकृति और मनुष्य संबंधों में ही कहीं है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि सर्वोदयी विचारधारा शोषण के मूल को छूती है। इसी कारण गाँधी की तस्वीर क्लाइमेट चेंज कार्यकर्ताओं के बीच मशहूर है। 

इस विचारधारा की देन क्या है? अगर इस विषय पर ध्यान करें तो तस्वीर थोड़ी बेहतर साफ़ होगी। खांटी राजनीति में तो अब सर्वोदय के कुछ प्रतीक ही बचे हैं। जैसे खादी । अब कोई बड़ा सर्वोदयी नेता देश की राजनीति में नहीं बचा है। कोई प्रदेश की या पंचायत की राजनीति में भी हो, ऐसा भी इल्म नहीं है मुझे। यदि आपको ऐसे लोगों की जानकारी हो तो मेरी अज्ञानता के लिए क्षमा करें। पर इस देश में सम्पूर्ण क्रांति का नारा देना वाला व्यक्ति एक सर्वोदयी था। भूदान आंदोलन और नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसे  बड़े प्रयास भी सर्वोदयी चिंतकों का योगदान है।उत्तराखंड का चिपको आंदोलन भी सर्वोदय की जमीन में ही पनपा और उसके सबसे बड़े नेता चंडी प्रसाद भट्ट जी इसी विचारधारा से जुड़े थे।  यदि ध्यान से देखें तो स्वदेशी और परंपरागत कृषि सम्बन्धी विचार जो अब सरकारी वैधता पा गया है, इसी विचार से पनपा है।  यह और बात है कि कुछ लोगों ने स्वदेशी के विचार को धर्म से जोड़कर स्वदेशी के विचार को अवैज्ञानिक सा दिखने पर मज़बूर कर दिया है।

पर इस सब के  बावजूद, सर्वोदयी विचारधारा कई सारे प्रश्नों के उत्तर नहीं दे पाती। मसलन, प्रकृति मनुष्य संबंधों पर काम करने के लिए वह अपने ऊपर काम (अनासक्ति और सत्याग्रह) को ज़्यादा महत्व देती है  पर समाज व्यवस्था पर जो जाती, धर्म, नस्ल और लिंग की बेड़ियाँ पड़ी हैं, उन्हें काटे बिना तो स्वराज नहीं मिल सकता और न ही हम प्रकृति और मनुष्य को साथ ला  सकते हैं । तो इस तरह यह विचार अपने में शुद्ध होते हुए भी अधूरा सा लगता है। सर्वोदय, एक ऐसी मंजिल की तरह दिखाई देता है, जिस तक पहुँचने का रास्ता नहीं बनाया गया है। सर्वोदय भी  विकास की बात करता है पर मुझे समझ नहीं आता कि क्यों सर्वोदय का विचार एक शाकाहारी विकास की बात करता है। क्यों सर्वोदयी विचार कई  सारी संस्कृतियों का निषेध करता है जिनमें मांस या मदिरा निषिद्ध नहीं है। 

अंत में  अपने मन की बात कहूं तो जो चीज़ मुझे सर्वोदयी विचारधारा और सर्वोदयी नेताओं में अच्छी लगती है वह यह है कि वह जिस बदलाव की बात कर रहे हैं, उसे अपने में लाने की बात पहले करते हैं। हालाँकि इसको लेकर हठधर्मी कभी कभी कुछ ज़्यादा ही हो जाती है। यह वैसा है जैसा कि मानिये एक 11 साल का बच्चा पहली बार फुटबॉल खेलने के लिए स्टेडियम आया है और आप उससे उम्मीद करे कि एक ही दिन में वो पेले बन जाए। एक सर्वोदयी मुझे करुण ह्रदय और घोर ईमानदार तो लगता है  पर  ऐसा भी लगता है जैसे वह भूल जाता है कि वह व्यवस्था जिसका वह हिस्सा है वह सिर्फ उसे ऐसा रहने का सम्बल दे सकती है, दूसरों को नहीं। शायद इसीलिए, अधिकतर सर्वोदयी नेता उच्च जाति के हैं, पढ़े लिखे हैं और अधिकतर पुरुष हैं। बहुत सारे इस्टैब्लिशमेंट तो उनके ऊपर है ही नहीं। 

उदाहरण के लिए मेधा पाटकर, अरुणा रॉय, निखिल डे सरीखे लोगों ने जिन्होंने अपने जीवन में सर्वोदय को अपनाया, उनमें अपने आप को वंचितों के करीब रखने की एक बड़ी सुन्दर भावना है। मेरे जैसे उच्च जाति के लोगों को यह अपील करती है। इच्छा होती है कि कुछ अंश उनके जैसा हो जाया जाए। मुझे यकीन है कि उनमें से बहुत से लोग इसे त्याग के रूप में नहीं देखते होंगे। बल्कि इसको एक वांछित बदलाव के रूप में देखते होंगे। तो यह भावना तो बहुत आवश्यक है और ऐसे लोगों का होना जो आमतौर पर एक शोषक वर्ग से आते हों पर दबे कुचलों के साथ काम करते हों, मानवता के प्रति आशा पैदा करता है। भले ही सारे उत्तर हमें सर्वोदय न देता हो पर क्या एक संवाद हो सकता है, सर्वोदय और अन्य विचारधाराओं के बीच? भारत का  ताज़ा वैचारिक खालीपन ऐसे संवाद का इंतज़ार कर रहा है। 

Comments

  1. बाकी खंडों का इंतज़ार रहेगा।

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  2. सर, नमस्ते आपने संवाद के माध्यम से बहुत अच्छी सोचने समझने और विचार करने वाली जानकारी लिखी हे ऐसे ही आपकी दूसरे संवाद का इंतजार रहेगा !!

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  3. तीनों पर लिख लोगे तब ही संवाद हो सकेगा, ऐसा खुद तुमने कहा है। ....तो इंतजार !

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  4. Thought provoking.. Will wait for the next.

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