पिछले साल हम 102 नंबर पर थे, नाइजर और सिएरा लीओन के बीच। इस साल हम 94 पर हैं, अंगोला और सूडान के बीच। पिछली रेटिंग 117 देशों के बीच में थी। इस बार 107 देशों के बीच है। पिछले साल हमारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स वैल्यू थी 30.3 और इस बार हमारी वैल्यू है 27. 2। पिछले साल भी हम सीरियस केटेगरी में थे। और इस साल भी। रिपोर्ट में विश्लेषित आंकड़े 2020 के नहीं हैं। हम यह मान सकते हैं कि कोविड-19 के दुष्प्रभावों का असर इस रिपोर्ट में नहीं दिख रहा है , जोकि शायद हमारी रैंक को और गिरा सकता है या कम से कम हमारी वैल्यू को बेहद बढ़ा सकता है जोकि कोई अच्छी बात नहीं है।
हालाँकि रिपोर्ट हमें बताती है कि हर बार चालू साल की रिपोर्ट की पिछले साल की रिपोर्ट से तुलना नहीं की जा सकती पर फिर भी कुछ तो फ़र्क़ हम देख ही सकते हैं। मसलन अंगोला 2000 से 2020 तक अपनी इंडेक्स वैल्यू को लगभग 64.9 से 26.8 पर ले आया और हम इतने ही वक़्त में 38.9 से 27.2 पर पहुंचे हैं। मैंने भारत के सूची में स्थान को इस तरह से समझने की कोशिश की जिससे से यह पता लग पाए कि हमारे देश के भूख और कुपोषण हटाने के प्रयास में कोई सच्चाई है के नहीं। रिपोर्ट के 17 वें पेज पर एक ग्राफ़िक पर जरा गौर फरमाइए। उसमें पता चलेगा कि उन देशों के साथ खड़ा है जिन्होंने 20 साल से अपने भुखमरी के रिकॉर्ड को ठीक करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है। ये देश हैं चाड, मेडागास्कर, हैती, लेसोथो, कॉंगो, उत्तर कोरिया, नाइजीरिया। यह सारे देश वह हैं जिनके ग्लोबल हंगर इंडेक्स में २० साल में मात्र 5 से 10 अंकों की गिरावट आयी है और यह सभी सीरियस और अलार्मिंग श्रेणी में आते हैं। इस से अधिक रोचक और दुखदायक बात यह है कि इस ग्राफ़िक में जो सबसे करीब देश है हमारे, वह है उत्तर कोरिया। हमारे पडोसी पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, सब हमसे भुखमरी और कुपोषण हटाने के मामले में बेहतर करते दिखाई देते हैं।
GHI रिपोर्ट 2020 पेज न 17 |
रिपोर्ट यह बात भी साफ़ करती है कि भारत के अंदर एक और भारत है रवांडा, चाड जैसे देशों के जैसा या उनसे भी बदतर है। भारत के कुछ हिस्से स्टंटिंग (ऊंचाई और उम्र का अनुपात) के मामले में राष्ट्रीय औसत से कोसों दूर हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय औसत जिन हिस्सों में स्टंटिंग का आंकड़ा बहुत बेहतर है, उनके बहुत करीब है।
पिछले साल जब मैंने ग्लोबल हंगर इंडेक्स पर लिखा था तब भी इस बात पर ध्यान दिलाने की कोशिश की थी कि किस तरह बदलता भू-परिदृश्य बढ़ती भुखमरी का कारण बनता जा रहा है। रिपोर्ट इस बार बदलते भू परिदृश्य, जमीन और पानी पर हक़ और पर्यावरण और लोगों के बीच गैर-बराबरी के मुद्दों पर बहुत मुखर है।इस रिपोर्ट के द्वारा किये गए देशों के विश्लेषण में भी यह झलकता है। मसलन, कांगो देश में जहाँ खेती पर अधिकतर जनता निर्भर है, वहीँ जीडीपी खनन उद्योग से ही आती है। इस कारण सरकार का ध्यान खनन पर ज्यादा है, भोजन पर कम। जहाँ खनन है, वहां उससे जुड़े हुए लालच भी हैं, जिसके चलते पर्यावरण, स्वास्थ्य, जैसे सब सरोकारों की आहुति दे दी जाती है। अंदरूनी कलह, अनिश्चितता लालच का ही परिणाम हैं।
इसके विपरीत, नेपाल जहाँ अपेक्षाकृत सुधार हुआ है, वहां हम जानते हैं कि कृषि और वन, दोनों ही क्षेत्र काफी बड़े हैं। खनन और आधुनिक उद्योगों की भूमिका कम है, पर्यटन उद्योग को छोड़कर। और पर्यटन बहुत संवेदनशील उद्योग है प्रदूषण और पर्यावरण के परिपेक्ष्य में।
वापस, उन ७-८ देशों की तरफ जाएँ, जहाँ 2000 से लेकर अब तक कोई ख़ास परिवर्तन नहीं आया है, उन सभी देशों में खनन उद्योग को अर्थव्यवस्था का रामबाण माना जाता है, कृषि और वानिकी में प्लांटेशन और नगदी फसलों का चलन बढ़ रहा है। तो जब खाना उगाएंगे ही नहीं तो वह आएगा कहाँ से। ऊपर से हमारे देश में तो सबको शाकाहारी बना देने की अजीब मुहीम चल पड़ी है। हमें यह क्यों याद नहीं रहता कि अति हर चीज़ की बुरी होती है। 138 करोड़ लोग यदि गेंहू और चावल ही खाएंगे, तो इन फसलों के साथ होने वाले चारे का क्या होगा। उसकी पराली जलेगी। जो अनाज हमारे पेट की आग को शांत करता है, उसका भूसा, हमारे फेफड़ों को जला डालेगा।
नोट- आप चाहें तो पिछले अंक को भी पढ़ सकते हैं, जो कि पिछले साल "ग्लोबल हंगर इंडेक्स और जंगल का क्या कोई कनेक्शन है" शीर्षक से इस ब्लॉग में है। नीचे पुराने लेख का लिंक है।
https://mainkabir.blogspot.com/2019/10/blog-post_23.html
Sir, After a long time read your complete write up. Its great ones you write on some topic like human v/s natural god
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