Skip to main content

उत्तर विकासवाद -कड़ी-2 - नीमखेड़ा की समस्या क्या है?

उत्तर विकासवाद की बेहतर समझ बनाने के लिए हमने सोचा के क्यों न इस बार  केस स्टडी के तरीके का प्रयोग किया जाय। इस बार का ब्लॉग एक केस होगा आपके लिए। आपको कहानी के अंदर मौजूद सुरागों के जरिये, पूछे हुए सवाल का जवाब देना होगा। सबसे बेहतरीन जवाब को हम "मैं कबीर" के अगले अंकों में प्रकाशित करेंगे, आपके नाम के साथ। आप अंग्रेजी या हिंदी, किसी भी भाषा में जवाब दे सकते हैं। हम इस बार हिंदी न पढ़ सकने वालों के लिए ऑडियो भी अपलोड कर रहे हैं।

 मैं कबीर करीब 500 विकास विशेषज्ञों तक पहुँच रहा है। हम अच्छे जवाबों की उम्मीद करते हैं। यदि बेहतर जवाब आये तो आगे भी इस तरह से आप तक पहुंचेंगे। अपना विश्लेषण हम बेहतर जवाब के साथ प्रकाशित करेंगे।

उत्तर देने की अवधि - 11 अगस्त 2019 तक।

नीमखेड़ा  की समस्या क्या है? (2010)

सोनसाय को नहीं पता कि कैसे किया जाए ये। पर करना तो पड़ेगा। धीरेश भी परेशान है। उसने अपने टीम लीडर से वादा किया था के अगले साल नीमखेड़ा में वृक्षारोपण होके रहेगा। पर अगर पडोसी गाँव का साथ ही न मिला तो ये कैसे होगा। बारिश आने में बस दो महीने बचे हैं। अब तक झगड़ा ही न सुलझा है।  उसने अपने टीम लीडर से कहा है के बगल के गाँव वाले बड़े नाराज़ हैं नीमखेड़ा से। अगर हम इस जमीन पर वृक्षारोपण करेंगे तो वे अपने मवेशी इस पर छोड़ देंगे।

नीमखेड़ा गाँव मध्य भारत के मांडा जिले के धावइ ब्लॉक में है। इस गाँव को बसे अधिक अरसा नहीं हुआ है। बस 35 साल पहले इस गाँव के लोग पास के बाघ अभयारण्य (टाइगर रिज़र्व ) से विस्थापित किये गए थे।  वन विभाग ने उन्हें यहाँ बसाया। आज भी नीमखेड़ा गाँव लोगों के पास अपनी जमीन का पट्टा नहीं है। पर जो जमीनें वन विभाग ने उन्हें दी, वह बड़ी उपजाऊ हैं। धावइ के पास होने से गाँव को बहुत लाभ भी हुआ। आज गाँव के 165 परिवारों में से करीब 15 सरकारी नौकरियों में हैं। बहुतों के बच्चे पास के कस्बे के डिग्री कॉलेज भी जा रहे हैं। गाँव में बिजली है। कइयों के पास अपना पंप भी है, सिंचाई के लिए।

टाइगर रिज़र्व के पास होने के कारण वहां एक संस्था आयी जो कान्हा के आसपास के गाँव में जंगल और पानी पर काम करना चाहती थी। इस संस्था ने बाकायदा गाँव की ग्राम सभा के साथ एक समझौता किया। उसमें गाँव की और अपनी जिम्मेदारी समझाई। सोनसाय जो गाँव के मुखिया थे, इस काम में बड़ी भूमिका निभाई। नीमखेड़ा गाँव में जंगल न होने के कारण गाँव वालों ने अपना जंगल बनाने की योजना रखी। एक टीले का चुनाव किया गया वृक्षारोपण के लिए। उस टीले पर अधिक हरियाली नहीं थी। सो पेड़ लगाने की ज़रूरत तो थी। उस साल वृक्षारोपण तो हुआ पर गाँव के लोग उसकी रखवाली नहीं कर पाए। और मवेशी पूरे पौधे चर गए। संस्था के लिए यह बड़ा झटका था। ख़ास तौर पे धीरेश के लिए। नयी नयी नौकरी थी। उसपर ये नुक्सान।

संस्था के लोगों ने जब अच्छे से तथ्यों को परखा , इलाका घूमा तो पता चला के गाँव के लोग एक क्षेत्र जो किसी के कब्जे में नहीं है, वहां अपने मवेशी नहीं छोड़ते। इसका कारण है के वहाँ बहुत लैंटाना (एक झाडी, जो बहुत तेजी से फैलती है) है , और मवेशी भी उसके झुरमुट में नहीं घुस पाते। जब गाँव वालों से इस विषय पर चर्चा हुयी, तो उन्हें भी योजना अच्छी लगी।

नीमखेड़ा की इस योजना की धमक आसपास के गाँव में भी सुनने को मिली। अब बघरौदी के लोग ख़ास तौर पर उसी जमीन पर जिसपर वृक्षारोपण होने वाला था, दावा करने लगे के ये उनका जंगल है। नीमखेड़ा में सोनसाय को इस बात पर बड़ा गुस्सा आया।

"ये आसपास के गाँव वाले हमें कभी आगे नहीं बढ़ने देंगे। जबसे हम यहाँ आये हैं, ये हमें परेशान किये हुए हैं। न हमें मवेशी चराने देते हैं, न जंगल लगाने देते हैं।" दुखी मन से सोनसाय धीरेश से बोला।

धीरेश बगल के गाँव बघरौदी के सरपंच से मिलने गया। उसके साथ मालखेड़ी का सरपंच भी बैठा हुआ था। धीरेश को देखते ही वह बोला-

"नीमखेड़ा वाले अपने आप को समझते क्या हैं, कबसे हमारे निस्तारी जंगल पर बैठे हुए हैं। अगर इन्होने वहां जंगल लगाया, तो हम अपने मवेशी वहां छोड़ देंगे। "

धीरेश ने समझाया के नक़्शे में तो प्रस्तावित क्षेत्र नीमखेड़ा में आता है। पर वह माना नहीं। मालखेड़ी के सरपंच ने भी नीमखेड़ा के लोगों द्वारा उनके जंगल पर कब्जे की बात कही। धीरेश ने सर पकड़ लिया। अगर सारे गाँव इस तरह विरोध करेंगे तो प्रोजेक्ट का क्या होगा ?

चित्र-दीक्षा अग्रवाल द्वारा 


प्रश्न 1 - क्या आप विश्लेषण करके बता सकते हैं के नीमखेड़ा और बाकी गाँव के बीच में तनातनी की असली वजह क्या है?

प्रश्न २- यदि आप धीरेश की जगह होते तो क्या करते? विस्तार से बताइये। 

प्रश्न 3- इस केस के लिए आप किसे जिम्मेदार समझते हैं और क्यों ?

अपने जवाब mainkabiranytime@gmail.com पर भेज सकते हैं। 



Comments

  1. वर्तमान में भारत की प्रमुख समस्या शिक्षा व्यवस्था है।

    अगर आप 2 मिनट के लिए ध्यान दें कर सोचें तो आप पाएंगे की बाकी सारी समस्याओं का जो जड़ है, वह कहीं ना कहीं, शिक्षा से ही जुड़ा हुआ है।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

गायब होते जुगनू

फोटो इंडियन एक्सप्रेस से  आखिरी बार अपने जुगनू कब देखा था ?  अब ये न कहियेगा कि परवीन शाकिर की ग़ज़ल में देखा था।  "जुगनू को दिन के वक़्त परखने की ज़िद करें  बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए " बचपन में हमारे घरों में घुस जाते थे जुगनू। रात को बत्ती जाते ही दिखने शुरू हो जाते थे। दिप दिप उनकी रौशनी में कब वो वक़्त कट जाता था, पता  ही नहीं चलता था। मेरी उम्र के लोगों ने तो ज़रूर अपने बचपन में जुगनू देखे होंगे।  सैकड़ों, हज़ारों एक ही पेड़ पर। तब ज़िन्दगी में जुगनुओं की बड़ी जगह थी। बत्ती तो आती जाती रहती थी। पर जुगनू चमकते रहते थे। फिर कुछ लोग उन्हें देख कर कविता कहानी  लिखते थे और कुछ  बस उन्हें देखते थे। घंटों। फिर जैसे ही बत्ती आयी तो सारे बच्चे चिल्लाते थे "लाइट आ गयी... और सब घर के अंदर। कभी कभी कोई जुगनू घर के अंदर भी आ जाता था। वो उन कुछ कीड़ों में से थे  जिनसे बच्चे डरते नहीं थे। बल्कि खेलते थे।  मुझे नहीं लगता के मेरे बच्चे सहज भाव से जुगनू को कभी छू पाएंगे। उनकी उम्र के सभी बच्चे शायद जुगनुओं के झुण्ड को देखकर डर जाएं क्यूं...

89 का बचपन- पठान की आँखें

तस्वीर- ANI से मुरादाबाद के एक पीतलक के कारीगर की  बहुत खूबसूरत दिन था वो! आखिरी इम्तिहान का दिन! मैंने बड़ी मेहनत की थी। पूरे इम्तिहान के दौरान रात को 11 बजे सोता था, 5 बजे जागता था। पांचवी क्लास के बच्चे के लिए इतना बहुत था। सुबह सुबह उठ के सबक दोहराना, नहाना-धोना, भगवान के सामने माथा टेकना, और फिर स्कूल जाना। स्कूल बस  में भी किताब निकाल कर दोहराना बड़ा लगन का काम था।  इम्तिहान ख़त्म होने के बाद के बहुत से प्लान थे।  जैसे फटाफट, पास वाली दुकान से ढेर सारी कॉमिक्स किराए पर लानी थी। बुआ जी के घर जाकर बहनों के साथ खेलना था। वगैरह वगैरह। हसनपुर भी जाना था। मुरादाबाद में तो मैं अकेला था चाचा के पास। हालाँकि उस समय इम्तिहान की वजह से मम्मी पापा मुरादाबाद में ही थे। वहाँ के चामुंडा मंदिर और शिवालय की बहुत याद आती थी।  खैर! इम्तिहान देने के बाद स्कूल से ही छुट्टी का जलसा शुरू हो चुका था। सब बच्चों के चेहरों पर ऐसी ख़ुशी थी जैसे सब जेल से छूटे हों। आखिरी दिन पर फैज़ल, शहज़ाद, अमित और मैं अपने पेपर नहीं मिला रहे थे। बस, हम सब बहुत खुश थे। कूद रहे थे। एक दूसरे ...

उत्तर विकासवाद क्या है - कड़ी-1

मंडला में देशी मक्के की किस्में-कुछ दिनों में शायद बीते कल की बात बन जाएँ  कुछ समय पहले मेरे एक  दोस्त ने जोकि मेरी तरह एक गैर सरकारी संस्था में ग्रामीण विकास के लिए कार्य करता है, एक दिलचस्प किस्सा सुनाया।  उसने बताया के वह एक अजीब अनुभव से गुज़र रहा है। मेरा दोस्त बहुत समय से मंडला के एक गाँव में किसी परिवार के साथ मचान खेती पर काम कर रहा था। मचान खेती सघन खेती का एक मॉडल है जिसमें एक समय में एक जमीन के टुकड़े से कई फसलें ली जाती हैं, कुछ जमीन पर और कुछ जमीन से उठ कर मचान पर, बेलें चढ़ाकर । जिस परिवार को उसने प्रेरित किया, उसने पहले साल ज़बरदस्त मेहनत की और बड़ा मुनाफा कमाया। दूसरे साल भी परिवार के साथ वो काम करता रहा। और नतीजा फिर बढ़िया निकला।  तीसरे साल उसने सोचा के परिवार अब तो खुद ही मचान खेती कर लेगा। बरसात के आखिरी दिनों में मेरा दोस्त उस परिवार से मिलने गया। वहां जो उसने देखा, उससे वो भौंचक्का रह गया। उसने देखा की मचान खेती नदारद थी। उसकी जगह पारम्परिक खेती ले चुकी थी।  उसने घर के महिला से पूछा-  "काय दीदी, इस ब...