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उत्तर-विकासवाद कड़ी-3: नीमखेड़ा की समस्या क्या है?- केस विश्लेषण


साथियों, पिछले रविवार, हमने जो केस आपसे साझा किया था, उसपर आप लोगों के कुछ जवाब प्राप्त हुए। उसमें से एक हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। और उसके बाद हम नीमखेड़ा की समस्या की हमारी समझ पेश करेंगे। ये कहना बिलकुल मुनासिब होगा के हमारी समझ कोई धर्मोपदेश नहीं है जोकि गलत नहीं हो सकती । इसलिए हम चाहेंगे के पाठक अपना विवेक इस्तेमाल करें। और अपनी सोच को और पैना करें। केस मेथॅड हमारी तार्किक शक्तियों को बेहतर करने और सन्दर्भ को समझने की हमारी क्षमता को बढ़ाने के लिए होता है। यहाँ सही जवाब कुछ नहीं होता, सिर्फ तर्क होता है।

विशाल पंडित जी, ने हमें अपना उत्तर सुझाया है जोकि कुछ ऐसा है -

प्रश्न 1 - क्या आप विश्लेषण करके बता सकते हैं के नीमखेड़ा और बाकी गाँव के बीच में तनातनी की असली वजह क्या है?

समस्या यह है के पुराने गाँव नीमखेड़ा को अपने जंगल पर गलत तरीके से काबिज हुआ समझते हैं, बावजूद इसके कि नीमखेड़ा वालों को खुद सरकार वहां बसाई थी, वे खुद अपनी मर्ज़ी से नहीं गए थे।

प्रश्न २- यदि आप धीरेश की जगह होते तो क्या करते? विस्तार से बताइये। 
धीरेश को दोनों गाँव से बात करनी चाहिए। लोगों को विश्वास में लेकर ही वृक्षारोपण सफल हो सकता है।

धन्यवाद, विशाल भाई। आपका उत्तर काफी  वाजिब है। नीचे हम थोड़ा तफसील से बात करेंगे इस बारे में।


चित्र-दीक्षा अग्रवाल द्वारा 


सन्दर्भ विश्लेषण 

हम पहले, नीमखेड़ा के सन्दर्भ को समझने की कोशिश करते हैं। नीमखेड़ा गाँव , जैसा कि केस में कहा गया, 35 साल पहले टाइगर रिज़र्व से बाहर किया गया और नयी जगह बसाया गया। तो जब नयी जगह बसाया गया होगा, तो क्या चीज़ें उजड़ी और क्या बसी?

जो उजड़ा वो था खेत, घर, मंदिर, खेरमाई, रास्ते, क्षेत्र का ज्ञान, पुरानी अर्थव्यवस्था, जंगल-मनुष्य का नाता, गौचर , पास पड़ोस के गाँव से संबंध आदि।

और बसा क्या - खेत, रास्ते और घर, स्कूल, नयी अर्थव्यवस्था।

जो चीज़ें नहीं ला पाए नीमखेड़ा के लोग, उन्हीं के कारण केस में हमें आस-पास के गाँव से तनातनी दिखाई देती है। जब नया गाँव बना होगा, तब न तो नीमखेड़ा के लिए  गौचर की व्यवस्था पर ध्यान दिया गया और न इस बात पर के जिस जंगल पर नीमखेड़ा को बसाया जा रहा है, उसपर पहले से निस्तार किसका है? इस बात पर विचार ही नहीं हुआ के यदि नीमखेड़ा के लोगों को दूसरे गाँव की निस्तारी जमीन पर बसाया जाएगा तो उनके और आसपास के गाँव के रिश्ते कैसे होंगे। सिर्फ कानूनी रूप से दर्ज संसाधनों पर गौर किया गया। वह चीज़ें जो कागज़ में दर्ज नहीं थीं, जो गाँव की संस्कृति में रची बसी तो थीं पर किसी दस्तावेज का हिस्सा नहीं थीं, वही केस में हमें हावी होती दिखाई देती हैं। केस में हमें एक नयी अर्थव्यवस्था से लाभान्वित होता नीमखेड़ा दिखाई देता है पर जो उसने खोया है, उसको भी महसूस करने की जरूरत है।

एक और बात। केस इस बात को सामने लाता है कि इस तरह बसे  हुए गाँव का सामाजिक ढांचा क्या होगा। पुराने नेता सोनसाय की अब नहीं सुनी जाती। सामाजिक नेतृत्व इतना ढीला हो गया है कि वो जो फैसला करता है, उसे कार्यान्वित नहीं कर पाता। इसको भी आप गाँव के विस्थापन से जोड़कर देख सकते हैं, जिससे यह स्थापित होता है के क्यों गाँव अपने ही निर्णयों को (यहाँ वृक्षारोपण ) को खुद सफल नहीं बना पाया। चूँकि हज़ारों साल की समझ जो अंदर वाले नीमखेड़ा थी, बाहर वाले में नहीं है।

धीरेश की दुविधा 

धीरेश की दुविधा के दो भाग हैं। एक तो वह विकास की प्रक्रिया के प्रोजेक्टीकरण का शिकार है। दूसरे उसे इस जटिल वस्तुस्थिति से निपटना है जिसकी जड़ें इतिहास में हैं। सवाल है कि उसके सामने समय से काम पूरा करने की लाचारी क्यों है? और क्या ये लाचारी उसे गलत फैसले की तरफ नहीं धकेलेगी? क्या इस बात की तैयारी उसकी संस्था ने या उसने खुद की है? क्या मात्र कुछ PRA और कुछ समूह में बात करने से वह समस्या की जड़ तक पहुँच सकता है?

मान के चल सकते हैं कि इस जटिल सच्चाई का पूरा विश्लेषण उसके पास नहीं हो सकता। फिर भी, धीरेश के सामने दो विकल्प हैं-

1 दोनों गाँव से बात करता रहे और कोई बीच का रास्ता निकालने की कोशिश करे। इसमें बघरौदी के गाँव के लोगों का हित भी सधना चाहिए।

2 वन विभाग से इस बात की तसल्ली करले कि वृक्षारोपण की जमीन नीमखेड़ा के पास ही है। और इसी आधार पर नीमखेड़ा से वृक्षारोपण करने को कहे।

पहला विकल्प ही अधिक उपयोगी लगता है क्यूंकि इससे, बघरौदी से बात करने का विषय ही बदल जाएगा। और एक सृजनात्मक पहलू पर बात होगी। हो सकता है चारे या लकड़ी के लिए बघरौदी के लोग नीमखेड़ा का साथ देने लगें। दूसरा विकल्प जल्दी निर्णय तो कराएगा पर बगलके गाँव के साथ न होने से कार्यक्रम के फेल होने का खतरा बना रहेगा।

नीतिगत समस्या 

विस्थापन की नीतियां जब तक लोगों के सब प्रकार के अधिकारों और हितों को ध्यान में रखकर नहीं बनेंगी, और क़ानून की एक मात्र आधुनिक ढाँचे की समझ को ही अंतिम मना जायेगा, नीमखेड़ा जैसी घटनाएं और होंगी। हमारी आज की नीतियां सामाजिक-पारिस्थितिक और आर्थिक तंत्र (सिस्टम) की समझ पर आधारित न होकर, लकीर की फ़कीर (linear ) हो गयी हैं। इसलिए, किसी भी समाधान को पूरा नहीं समझा जाता। निर्णय के हिस्से कर दिए जाते हैं और फिर हर हिस्से के अलग अलग समाधान खोजे जाते हैं। जैसे यहाँ बाघ बचाने के लिए, टाइगर रिज़र्व से लोगों को निकालना इस आधार पर है कि इससे बाघ को अधिक आश्रय मिलेगा। पर बाहर जो जंगल इस कारण कटा, उसका क्या। हमारे अधिकतर रिज़र्व या अभयारण्य (sanctuary) इसी तरह आसपास के क्षेत्रों से कट कर एक द्वीप बनते जा रहे हैं और भयानक रूप से मनुष्य-वन्यजीव द्वन्द (Human wildlife conflict ) को बढ़ावा दे रहे हैं।






Comments

  1. Well done ,Sir
    You did take best subject.

    Iska jivit example hamhe akho se samne dekhne ko milta hai.iska sar nikale to un tribe se unka culture and prakartik lagao chinha ja rha hai .

    Even Aaj hamhare com ( rastya ) mai aise jagah nhi bachi jahan log nature se connect ho.ya to deforestation krke factory , roads construct kr liya jata hai.


    Ise hamhe hi bacha sakte hai !


    ReplyDelete
  2. Very well developed case. It makes you think about the paradigm of development and perceptions

    ReplyDelete

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