बहुत सोच विचार के बाद अब लिखना शुरू किया हूँ अपने बचपन के बारे में। बहुत से अनुभव संजोना अब बहुत जरूरी सा महसूस हो रहा है। शायद किसी को इस से बहुत फर्क न पड़े पर अगर एक को भी पड़ता है तो मुझे मलाल नहीं रहेगा कि मैं उस तक पहुंचा नहीं। किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों !! मेरे बाबा ये नज़्म सुनाते रहते थे। जो पत्थर पे पानी पड़े मुत्तसिल। "मुक्कासिल?" मैं बोलता था। और वो बोलते थे, "उंहू, मुत्तसिल बोलो, मुत्तसिल" !! "अच्छा!!", मैं बोलता था। और फिर शुरू!! जो पत्थर पे पानी पड़े मुत्तसिल तो घिस जाए बेशुबाह पत्थर की सिल रहोगे अगर तुम युहीं मुत्तसिल तो एक दिन नतीजा भी जायेगा मिल किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों ! किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों! गर ताक़ में तुमने रख दी क़िताब तो क्या दोगे तुम इम्तिहाँ में जवाब न पढ़ने से बेहतर है पढ़ना जनाब आखिर हो जाओगे एक दिन कामयाब किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों ! किये जाओ कोशिश मेरे दोस्तों ! "ये नज़्म हमने तीसरी जमात में याद करी थी। अब भी याद है !!" जब भी बाबा ये नज़्म दोहराते थे तो यह जतात...
सम-सामायिक विषयों, पोस्ट डेवलपमेंट (उत्तर विकासवाद) और विकास के वैकल्पिक मार्गों की बात; जंगल के दावेदारों की कहानियां, कुछ कविताएं और कुछ अन्य कहानियाँ, व्यंग्य