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सब कुछ नया लिखना पड़ेगा - (प्राकृतिक पुनर्स्थापन (ecorestoration) से "सामाजिक-पारिस्थितिक सृजन" (social-ecological creation)

मध्य हिमालय का बिना चीड़ का एक पुराना जंगल  क्या हम किसी बर्बाद हुयी चीज़ को फिर बिलकुल वैसा बना सकते हैं, जैसी वह पहले थी। शायद निर्जीव चीज़ों को हम फिर से बना सकते हैं। पर उस पर भी हज़ारों विवाद हैं। और जो सजीव है, क्या उसको फिर से बना सकते हैं? अगर हम लोगों को क्लोन भी कर लें, तो भी क्या क्लोन और असल व्यक्ति एक से होंगे?  मेरी राय में जवाब होगा, नहीं।  पिछले 200 वर्षों में औपनिवेशिक काल, औद्योगिक क्रांति, पूँजीवाद और  आधुनिकता  के प्रचार प्रसार ने मिलकर ऐसी धमाचौकड़ी मचाई है कि हज़ारों सालों से अर्जित की हुयी विद्वता (wisdom ), ज्ञान, सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिक (ecological ) ढाँचे चरमरा गए हैं और बदलने पर मजबूर हुए हैं। यह बदलाव इनसानियत के इतिहास में पहले आये बदलावों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा तेज़ और गहरे हैं।  ये सिर्फ राजा रानी के खिलाफ हुए विद्रोह नहीं हैं जिन्हें इतिहास की किताबें बड़े बदलाव की तरह दिखलाती हैं। यह मानस में हुए गहरे बदलाव हैं जो एक से दूसरी पीढ़ी में ही आ जा रहे हैं अब। यह बदलाव न सारे के सारे अच्छे हैं न सारे के सारे बुरे। जैसा कि हर युग में होता है, इसमें कुछ अच्छे बद

बांग्लादेश की छलाँग और गैर सरकारी संस्थाएं

फोटो इंटरनेट से  पिछले दिनों देश  आर्थिक हलकों में ये खबर छायी रही की बांग्लादेश ने प्रति-व्यक्ति आय के मामले में भारत की बराबरी कर ली है। मानव जीवन की गुणवत्ता  के कई मायनों में बांग्लादेश हम से पहले ही आगे था। मसलन औसत आयु के मामले में, जनसँख्या वृद्धि दर पर अंकुश लगाने के मामले में, महिलाओं के उत्थान के मामले में और न जाने कितने ऐसे मामलों में एक एक करके हम बांग्लादेश से पिछड़ते गए हैं। हम स्वच्छ भारत का ढिंढोरा ही पीटते रहे और हमारा पडोसी मुल्क  खुले में शौच से लगभग पूरी तरह से मुक्त भी हो गया।   बांग्लादेश की इस तरक्की में बहुत से कारक हैं।  पर एक कारक जिस पर आज हम ध्यान दिलाना चाहेंगे, वह ऐसा है जिसे हमारे देश में आज शक की नज़र से देखा जा रहा है।  यह है बांग्लादेश की विशाल गैर सरकारी संस्थाएं। 2006 में जब मैंने  सरकारी संस्था  में काम करना शुरू किया था, तो मेरे एक सीनियर और गैर सरकारी संस्था क्षेत्र के एक प्रमुख विद्वान् ने मुझे बताया था कि बांग्लादेश में ऐसी कई संस्थाएं हैं जिन्हें अब वहां की सरकार चाहकर भी मिटा नहीं सकती। यह इतनी बड़ी हो गयी हैं कि पूरा देश अब किसी न किसी रूप में

मानव-वन्य-जीव मुठभेड़- महिलाओं पर असर: अपडेट अक्टूबर 2020

दैनिक हिंदुस्तान में छपी रामगढ़, नैनीताल की पीड़ित महिला की तस्वीर  महिलाओं पर मनाव-वन्य जीव मुठभेड़ का असर अक्टूबर माह में ख़ास तौर पर महसूस किया गया। मैं जिन खबरों को जुटा पाया, उनमें से अधिकतर उत्तराखंड से थीं। खासतौर से नैनीताल जिले से।  कुल मिला कर महिलाओं पर हमले की 21 घटनाएं  प्रकाश में आयीं। इनमें से 7 मामलों में महिला की मृत्यु हो गयी। बाकी 14 में महिलाएं घायल हुईं। 21 में से 18 मामले तेंदुए या गुलदार के हमले के थे।  बारिश के बाद का अक्टूबर का महीना महिलाओं की दिनचर्या में, खासतौर से उत्तराखंड और अन्य हिमालयी क्षेत्रों में चारा जमा करने का होता है। अधिकतर मामलों में हमले जंगल जाती और घास काटती औरतों पर हो रहे हैं।  तेंदुओं का हमला हमें बताता है कि यह सिर्फ इसलिए नहीं हो रहे कि महिलाएं अचानक जंगली जानवरों के सामने आ रही हैं। कम से कम उत्तराखंड में तो घात लगाकर हमला होता हुआ नज़र आता है।  नैनीताल  जिले के मुख्य शहर हल्द्वानी  के आसपास के क्षेत्रों में तक में यह हमले हुए। यहाँ तो हमने अधिकतर औरतों पर हमलों के बारे में बताया है पर हमले पुरुषों हुए हैं पर काफी कम। पुरुषों पर हमले घात लग

ग्लोबल हंगर इंडेक्स-हम कहाँ पहुंचे

पिछले साल हम 102 नंबर पर थे, नाइजर और सिएरा लीओन के बीच। इस साल हम 94 पर हैं, अंगोला और सूडान के बीच। पिछली रेटिंग 117 देशों के बीच में थी। इस बार 107 देशों के बीच है। पिछले साल हमारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स वैल्यू थी 30.3 और इस बार हमारी वैल्यू है 27. 2। पिछले साल भी हम सीरियस केटेगरी में थे। और इस साल भी। रिपोर्ट में विश्लेषित आंकड़े 2020 के नहीं हैं।  हम यह मान सकते हैं कि कोविड-19 के दुष्प्रभावों का असर इस रिपोर्ट में नहीं दिख रहा है , जोकि शायद हमारी रैंक को और गिरा सकता है  या कम से कम हमारी वैल्यू को बेहद बढ़ा सकता है जोकि कोई अच्छी बात नहीं है।   हालाँकि रिपोर्ट हमें बताती है कि हर बार चालू साल की रिपोर्ट की पिछले साल की रिपोर्ट से तुलना नहीं की जा सकती पर फिर भी कुछ तो फ़र्क़ हम देख ही सकते हैं। मसलन अंगोला 2000 से 2020 तक अपनी इंडेक्स वैल्यू को लगभग 64.9 से 26.8 पर ले आया और हम इतने ही वक़्त में 38.9 से 27.2 पर पहुंचे हैं। मैंने भारत के सूची में स्थान को इस तरह से समझने की कोशिश की जिससे से यह पता लग पाए कि हमारे देश के भूख और कुपोषण हटाने के प्रयास में कोई सच्चाई है के नहीं। रिपोर्ट

गाँधी, भगत सिंह, अम्बेडकर- खंड 1

शीर्षक के नाम आपको लेख पढ़ने के लिए मजबूर करने के लिए थे। नहीं तो मेरा मानना है कि नामों को विचारों से जोड़ना, उन लोगों के साथ ज़्यादती है जिनके नाम से वह विचार जुड़ जाता है। विचार या विचारधारा अपने आप में इतनी परिष्कृत होती है कि उसे किसी पर भी लादना, चाहे वह उस विचार का मूल प्रणेता ही क्यों न हो, यह उसके प्रति एक प्रकार की हिंसा है। कोई भी विचारधारा एक आदर्श मानव या आदर्श जीवन का सपना दिखाती है।  और एक आदर्श विचार और आदर्श व्यक्ति के जीवन में थोड़ा फ़र्क़ होना तो लाजिमी है।  इसलिए, हम इस लेख में गाँधी, अम्बेडकर  और भगत सिंह के विचारों की बात करेंगे, उनके व्यक्तित्वों की नहीं। और इन व्यक्तियों के  ऐतिहासिक विरोधों में न फंसते हुए, क्या इन तीनों को गूंथा जा  सकता है? इसी सवाल से जूझने की कोशिश यह लेख कर रहा है। मैं पूरी बात एक कड़ी में नहीं कह सकता इसलिए अपनी बात को तीन-चार खण्डों में कहने की कोशिश करूंगा।   गाँधी, भगत सिंह और अम्बेडकर । आधुनिक भारत के इतिहास में ये तीनों हिमालय के महान शिखरों से हैं। कोई और नाम इनके आसपास भी नहीं पहुँच पाते। इनकी गहराई इस तरह समझी जा सकती है भारत में इस समय म

मानव-वन्य-जीव मुठभेड़- महिलाओं पर असर: अपडेट

दोस्तों, यह एक बिलकुल नयी शुरुआत है जिसे मैं करने जा रहा हूँ। मैं अपने इस ब्लॉग में वनवासी  महिलाओं का वन्यजीवों के साथ आमना-सामना होने का एक लेखा जोखा अपने इस पोस्ट में अपडेट करता रहूंगा। मैं कोशिश  विषय से जुडी सभी खबरें मैं यहाँ मुहैया करता रहूं। उम्मीद है के इस तरह से इस तर्क को बल मिलेगा कि महिलाएं वन्य-जीवों का खतरा ज्यादा झेलती हैं।अपनी प्रतिक्रियाएं भेजिए और यदि आपको ऐसी कोई खबर लगे तो मुझसे जरूर यह साझा कीजिये ताकि मैं इस डाटाबेस को अपडेट करता रहूं। एक दूसरे पेज पर एक ट्रैकर बनाने का प्रयास भी करूंगा जिससे पूरे देश में महिलाओं पर इसके असर का बेहतर अंदाज़ा पैदा हो।  धन्यवाद  26/8/2020  https://india.mongabay.com/2020/08/resettlement-is-a-voluntary-option-for-families-in-wayanad-wildlife-sanctuary/ 31/8/2020 https://www.thehindu.com/news/national/tamil-nadu/woman-killed-in-tiger-attack-in-mudumalai-tiger-reserve/article32485959.ece#! 15/9/2020 https://www.thehindu.com/news/cities/Coimbatore/woman-trampled-to-death-by-wild-elephant-near-coimbatore/article32608586.ece#! 20/9/2020 h

विकास की "इन्सेप्शन" टाइप मन:स्थिति

"चहुँ ओर विकास की गंगा बह रही है।" "भाई साहब!! क्या कह रहे हैं? यह तो गन्दी नाली है !" "अरे एक-दो गाँव देखकर क्या होगा, बड़ी तस्वीर तो यह है कि चहुँ ओर विकास की गंगा बह रही है। " "किसके विकास की ?" "हमारे और आपके विकास की।"  "अच्छा!! कैसे !" "हमारे लीडर के दिमाग में एक ब्लूप्रिंट है, जिसे हमें लागू करना है।" "अच्छा! कहाँ !" "गाँव में, शहर में, हर जगह " "आपके लीडर को विकास का बेहतरीन अनुभव होगा ?" "नहीं पर वह बहुत अच्छे विचारक हैं। उनके चीते से भी तेज़ दिमाग से गाँव की सच्चाई छुप नहीं सकती। " "अच्छा!! पर कैसे?" "अरे! इन्सेप्शन फिल्म देखे हो कभी? नेओलार्डो डा पकरिओ वाली? ठीक वैसे ही। हमारे लीडर उसी तरह सोचते हैं। उनके दिमाग में एक ब्लूप्रिंट है। उन्होंने अपने मन में एक खाका बनाया है। और खाके के अंदर खाका है। ये प्योर क्रिएशन है। शुद्ध देशी घी टाइप का। " "कुछ समझ नहीं आया। थोड़ा ठीक से समझाइये।" "पहले बताइये इन्सेप्शन फिल्म देखे हैं के नहीं। "

माटी मानुष चून : क्या गंगा एक मानव निर्मित नदी नेटवर्क बनने वाली है ?

चित्र- अमेज़न से  "भारत में मानव निर्मित एक विशाल नदी नेटवर्क काम करता है, उसे वे लोग गंगा कहते हैं।"  स्थापित पत्रकार, लेखक, और पर्यावरणविद, अभय मिश्रा की किताब "माटी  मानुष चून" की यह आखिरी पंक्ति है। किताब गंगा के आने वाले दुर्भाग्य की एक तस्वीर खींचती है। एक भयावह तस्वीर। जो पिछले २०० सालों से हमारे हुक्मरानों के लिए हुए अनाप-शनाप फैसलों की तस्दीक करता है। ये एक महान नदी के तिल तिल मरने की कहानी हैं। वह नदी जिसे  इस देश के करोड़ों लोग अपनी माँ कहते हैं। वह नदी जो एक पूरी भाषा, एक पूरी संस्कृति की जननी है, क्या आप मान सकते हैं कि मर रही है? ये किताब उस लम्हे को बयान करने की कोशिश है कि जब गंगाजल सिर्फ गंगोत्री में बचेगा, बनारस में नहीं। बाकी जगह सिर्फ पानी होगा, गंगाजल नहीं, जिसके बारे में कहावत थी कि गंगाजल कभी सड़ता नहीं। आप कह सकते हैं कि ये कल्पना है। पर पिछले 200 सालों में गंगा पर बने बांधों ने, बैराजों ने और गंगा किनारे रहते लोगों के बहते खून के फव्वारे ने आज की वह स्थिति पैदा की है जिसमें अब ठीक होने की क्षमता न के बराबर है। हम अपने नीति निर्धारकों के झूठों क

गफाम (GAFAM) और आवाम

  गफाम ! हमारे शब्दकोष में जुड़ता ये सबसे नया शब्द है। माने गूगल, एप्पल, फेसबुक, अमेज़ॉन और माइक्रोसॉफ्ट। ये वो कंपनियां हैं, जो आज हमारे पूरे युग को परिभाषित करती हैं। आज का युग ! कत्रिम बुद्धिमत्ता (artificial intelligence ), कत्रिम यथार्थ (virtual reality) का युग! जहाँ, सारा ज्ञान गूगल बाबा के पास है, "अपनों के बीच जाने के लिए" हमें फेसबुक, व्हाट्सएप्प का सहारा चाहिए, अमेज़न, जिसे आपने कभी देखा नहीं, वो "आपकी अपनी दुकान" है, एप्पल पूरी दुनिया में धनाढ्य वर्ग का स्टेटस सिंबल है और माइक्रोसॉफ्ट के बिना दुनिया के आधे से ज्यादा कंप्यूटर आप नहीं चला सकते।  आज जब इन कंपनियों को लेकर आम चर्चा हो रही है, ख़ास तौर पर फेसबुक को लेकर हालिया विवाद को लेकर, हमें यह समझना चाहिए कि ये कंपनियां क्या बन चुकी हैं।आपको जानकारी होगी ही कि फेसबुक पर भारत में धार्मिक उन्माद फ़ैलाने वाले लोगों के  बयान को न रोकने के लिए आरोप लग रहे हैं। फेसबुक के लिए ये आरोप नए नहीं हैं। दुसरे देशों में भी ऐसे आरोप उसपर लगते रहे हैं, खास तौर पर अमेरिका में। ये आरोप हमारी ज़िन्दगियों में इन कंपनियों के दखल की

माइक्रो-फाइनेंस का काला सच

फोटो इकनोमिक टाइम्स से  हम देखेंगे। ..लाज़िम है के हम भी देखेंगे.. वो दिन के जिसका वादा है...  पिछले 73 सालों के हज़ारों दिनों में हमारे हुकुमरानों ने हमसे कई वादे किये हैं। जब सोचता हूँ उनके बारे में तो ऊपर लिखी फैज़ की नज़्म ही याद आती है।ये वादे असल में जुमले साबित हुए, जो अवाम को शांत रखने के लिए समय समय पर गढ़े जाते रहे हैं। खैर !! पिछले दो दशकों से इन्हीं हज़ारों जुमलों में से एक की बात हम आज यहाँ कर रहे हैं।  वह है "वित्तीय समावेश" (financial inclusion )। वित्तीय समावेश की पूरी कहानी का लब्बोलुआब ये है कि गरीब को वित्तीय संस्थानों से जोड़ देने से और उसे कर्ज योग्य (creditworthy) बना देने से उसकी गरीबी दूर हो सकती है। आपने जरूर सुना होगा कि हमारे देश में ३० करोड़ लोग अभी भी बैंकों की जद से बाहर हैं। यह बात ऐसे कही जाती है जैसे बस इसी एक वजह से वो अभी तक गरीबी की गिरफ्त में हैं। कहा जाता है कि ये लोग छोटे छोटे क़र्ज़ लेकर पूँजी को अपने कारोबार में लगा सकते हैं जिससे फिर वह ज़्यादा पैसा कमा सकते हैं। इसे माइक्रो-फाइनेंस कहते हैं।  90 के दशक से माइक्रो-फाइनेंस या वित्तीय समावेश के मु