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किसानों और जंगली जानवरों का लफड़ा क्या है

हिंदुस्तान टाइम्स से साभार   आज बच्चों के साथ बैठा नेशनल जियोग्राफिक चैनल देख रहा था।  भारत के पूर्वोत्तर के जंगलों पर सुन्दर वृत्तचित्र था वह।उत्तंग हिमालय से शुरू करके ब्रह्मपुत्र के विशाल फाट तक अचंभित कर देने वाले दृश्य। गोल्डन लंगूर, रेड पांडा, एशियाई काला भालू और न जाने क्या क्या।  पर जैसे ही कहानी मनुष्य-जानवर द्वन्द पर उतरी, मुझे बड़ा दुःख हुआ। उसमें हाथियों के घटते रहवास को लेकर चिंता प्रकट की जा रही थी।  कहा जा रहा था के पूर्वोत्तर में जनसँख्या और खेती के लिए जमीन का लालच बढ़ रहा है। और इस लालच से हमारे हाथियों के लिए रहवास कम रह गया है। क्या सच में किसानों का लालच हाथियों के घटते रहवास के लिए जिम्मेदार है? इस बात को इस तरह से पेश किया जाता है जैसे यह कोई ब्रह्म-वाक्य हो, के भैया ! यही सच है.. जान लेयो। और बाकी सब  है मिथ्या। हमारी पहले से ही मूर्ख बनी मध्य-वर्गीय दुनिया को और मूर्ख बनाते रहने की साजिश है ये। मैं उत्तराखंड का रहने वाला हूँ। हमारे यहाँ भी जंगल थोक के भाव है।  वहां भी यही घिसी पिटी कहानी कई दशकों से लोग सुनाये जा रहे हैं। कर्मभूमि है मंडला, मध्य प्रदे

Rashtra Ka Naya Bodh | Harishankar Parsai | Hindi Satire

जबलपुर से 90 किलोमीटर दूर मंडला में रहते हुए परसाई जी को उनके जन्मदिन पर श्रद्धांजलि देने का ख्याल आया। सुनिए, 1968 में लिखा उनका व्यंग्य - "राष्ट्र का नया बोध" .. लेखकों की यही ख़ास बात है। सालों बाद भी उनकी बात उतनी ही सारगर्भित और विचार के लायक है जैसी उस वक़्त थी। और हमारा राष्ट्रबोध भी उतना ही खोखला है जितना पहले था। ज्यादा लिखने की आवश्यकता नहीं। कृपा करके सुनियेगा जरूर।

मुझे ऑटो सेक्टर की चिंता क्यों नहीं है?

द फिनांशियल एक्सप्रेस से साभार  कुछ निराश लोग ऑटो सेक्टर में आयी जबरदस्त मंदी से बेहद आहत हैं। उन्हें लगता है कि ये मंदी अर्थव्यवस्था में मंदी की तस्दीक करती है। पर पता नहीं क्यों, मेरा मन कहता है कि क्या फर्क पड़ता है। कारें कौन खरीदता है ? अभी भी मुल्क में एक बड़ी आबादी के पास साइकिल तक नहीं है। आबादी का अधिकतर हिस्सा बस या रेल के जनरल डिब्बे से ही  सफर करता है। ये लोग तो शायद ही कभी सफर कर पाएं, गाडी में। कई बार मैंने इन लोगों को भेड़-बकरी की तरह गाँव की शेयर्ड जीप में लदे देखा है। ये लोग कभी क्या गाडी खरीदेंगे। गाडी न खरीद पाना नव-धनाढ्य वर्ग या नए पैसे वालों की समस्या है। ऐसे लोग जब पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग करने लगेंगे तो सरकार अपने-आप बसें खरीदेगी। इनमें से बहुतों को तो अब बस में सफर करने की आदत ही नहीं बची है। क्या पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बेहतर बनाने की योजना सरकार को नहीं बनानी चाहिए? एक के बाद एक राज्य सरकारें अपने बस परिवहन विभागों का निजीकरण करती आ रही हैं। कमर टूट गयी है सरकारी परिवहन के ढाँचे की। राष्ट्रीय स्तर पर इस समस्या पर कोई ध्यान क्यों नहीं देता। क्यों इस

उत्तर-विकासवाद कड़ी-3: नीमखेड़ा की समस्या क्या है?- केस विश्लेषण

साथियों, पिछले रविवार, हमने जो केस आपसे साझा किया था, उसपर आप लोगों के कुछ जवाब प्राप्त हुए। उसमें से एक हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। और उसके बाद हम नीमखेड़ा की समस्या की हमारी समझ पेश करेंगे। ये कहना बिलकुल मुनासिब होगा के हमारी समझ कोई धर्मोपदेश नहीं है जोकि गलत नहीं हो सकती । इसलिए हम चाहेंगे के पाठक अपना विवेक इस्तेमाल करें। और अपनी सोच को और पैना करें। केस मेथॅड हमारी तार्किक शक्तियों को बेहतर करने और सन्दर्भ को समझने की हमारी क्षमता को बढ़ाने के लिए होता है। यहाँ सही जवाब कुछ नहीं होता, सिर्फ तर्क होता है। विशाल पंडित जी, ने हमें अपना उत्तर सुझाया है जोकि कुछ ऐसा है - प्रश्न 1 - क्या आप विश्लेषण करके बता सकते हैं के नीमखेड़ा और बाकी गाँव के बीच में तनातनी की असली वजह क्या है? समस्या यह है के पुराने गाँव नीमखेड़ा को अपने जंगल पर गलत तरीके से काबिज हुआ समझते हैं, बावजूद इसके कि नीमखेड़ा वालों को खुद सरकार वहां बसाई थी, वे खुद अपनी मर्ज़ी से नहीं गए थे। प्रश्न २- यदि आप धीरेश की जगह होते तो क्या करते? विस्तार से बताइये।  धीरेश को दोनों गाँव से बात करनी चाहिए। लोगों को विश्वास म

उत्तर विकासवाद -कड़ी-2 - नीमखेड़ा की समस्या क्या है?

उत्तर विकासवाद की बेहतर समझ बनाने के लिए हमने सोचा के क्यों न इस बार  केस स्टडी के तरीके का प्रयोग किया जाय। इस बार का ब्लॉग एक केस होगा आपके लिए। आपको कहानी के अंदर मौजूद सुरागों के जरिये, पूछे हुए सवाल का जवाब देना होगा। सबसे बेहतरीन जवाब को हम "मैं कबीर" के अगले अंकों में प्रकाशित करेंगे, आपके नाम के साथ। आप अंग्रेजी या हिंदी, किसी भी भाषा में जवाब दे सकते हैं। हम इस बार हिंदी न पढ़ सकने वालों के लिए ऑडियो भी अपलोड कर रहे हैं।  मैं कबीर करीब 500 विकास विशेषज्ञों तक पहुँच रहा है। हम अच्छे जवाबों की उम्मीद करते हैं। यदि बेहतर जवाब आये तो आगे भी इस तरह से आप तक पहुंचेंगे। अपना विश्लेषण हम बेहतर जवाब के साथ प्रकाशित करेंगे। उत्तर देने की अवधि - 11 अगस्त 2019 तक। नीमखेड़ा  की समस्या क्या है? (2010) सोनसाय को नहीं पता कि कैसे किया जाए ये। पर करना तो पड़ेगा। धीरेश भी परेशान है। उसने अपने टीम लीडर से वादा किया था के अगले साल नीमखेड़ा में वृक्षारोपण होके रहेगा। पर अगर पडोसी गाँव का साथ ही न मिला तो ये कैसे होगा। बारिश आने में बस दो महीने बचे हैं। अब तक झगड़ा ही न सुलझा है।  उस

गुएर्निका

(2003 में लिखी कविता, स्पेन की लड़ाई  के बारे में  NCERT  की किताब में पढ़ने के बाद और पिकासो की गुएर्निका देखने के बाद ) डर जा भाग जा मर जा नीचे देख कम देख मत देख मिमिया खिसिया रिरिया  रो मत  हँस मत मोनालिसा की मुस्कान देखी है ? खबरदार! उससे ज़्यादा मत मुस्कुराना। यह भी पढ़ें, आज की झलक मिल सकती है.. http://mentalfloss.com/article/63103/15-fascinating-facts-about-picassos-guernica

खोये हुए देवता

एक समय  काल ने क्या करवट बदली, पवन ने क्या दिशा बदली की पंचाचूली की पर्वत श्रेणी की गुरुस्थली में पंचनाम देवों की भाइयों की भेंट, केदार की यात्रा हुई।  पंच महादेव कौन? गोल्ल, गंगनाथ, महाबली हरु, सेमराजा और भोला।  काली कुमाऊं और पाली पछाऊं के पांच लोकदेवता, कि पड़ती संध्या, जगती भोर में जिनके नाम की पहली धूप-बाती होती है, कि पहली फूल पाती चढ़ती है, कि हम तुम्हारा नाम लेते हैं।  -मुखसरोवर के हंस से उदधृत, लेखक-शैलेश मटियानी  ऊपर लिखी पंक्तियाँ कुमाऊं के पांच लोकदेवताओं की प्रार्थना के बारे में हैं। कुमाऊं में लोक देवताओं की पूजा उनकी कथा को इस तरह कह कर किये जाने की परंपरा है। इसे जागर कहते हैं। 15 साल की उम्र से 27 साल की उम्र तक मैं लगभग पूरा समय उत्तराखंड में रहा और कुमाउनी संस्कृति को थोड़ा बहुत जानने का सौभाग्य मुझे मिला। उसमें से एक था कुमाउनी लोक देवताओं के बारे में जानना। बड़ी शक्ति थी लोक देवताओं  में। खास तौर से गोल्ल देवता में तो अपार शक्ति थी।  बड़ी मन्नतें पूरी होती थीं, उनके चितई और घोड़ाखाल के मंदिरों में। यूँ तो पूरे भारत वर्ष में ग्राम देवताओं की पर

नदी में खेलते बच्चे

कीर्ति किरण बंदरु को सधन्यवाद-मंडला में नर्मदा नदी  का दृश्य  अब मंडला के बाहर एक बाईपास बन गया है। बिछिया के लिए जाओ, तो वही लेना पड़ता है। पहले नर्मदा जी के अच्छे दर्शन होते थे बिछिया जाते वक़्त। रपटा घाट  पर पुराना पुल इस  तरह बना हैं  के आराम  से पूरी नदी दिखती है। दाहिने हाथ को सहस्त्रधारा तक और बाएं को किले तक। पर बायपास में पुल की रेलिंग इतनी ऊँची है  के बहुत थोड़े से दर्शन होते हैं  बल्कि अगर ध्यान न दो तो शायद पता ही न चले की नर्मदा जी आ गयी हैं। । आंखें भरके नहीं देख सकते अब। खैर, बात ये है के आज जब उसपर से गुजरा, तो नदी में खेलते बच्चे दिखाई दिए। जब बच्चों के बारे में लिखता हूँ तो लगता है अपने बारे में लिख रहा हूँ। कोई भी बात हो, मुझे अपने  बचपन में ले जाती है। बहुत खेले हैं हम गंगा जी में। मुझे लगता है के कई सालों तक तो हर हफ्ते जाते थे। उत्तर प्रदेश में गजरौला के पास बृजघाट है न ! वहां।  मुझे याद नहीं के मैं कभी डरा हूँगा गंगा जी में नहाते समय। एक बार जरूर तिगरी मेले में पैर फिसला था और मैंने अपने ताऊ जी का कन्धा पकड़ लिया था।गंगा के घाटों में नहाते हुए बस गंगाजल का ठं

उत्तर विकासवाद क्या है - कड़ी-1

मंडला में देशी मक्के की किस्में-कुछ दिनों में शायद बीते कल की बात बन जाएँ  कुछ समय पहले मेरे एक  दोस्त ने जोकि मेरी तरह एक गैर सरकारी संस्था में ग्रामीण विकास के लिए कार्य करता है, एक दिलचस्प किस्सा सुनाया।  उसने बताया के वह एक अजीब अनुभव से गुज़र रहा है। मेरा दोस्त बहुत समय से मंडला के एक गाँव में किसी परिवार के साथ मचान खेती पर काम कर रहा था। मचान खेती सघन खेती का एक मॉडल है जिसमें एक समय में एक जमीन के टुकड़े से कई फसलें ली जाती हैं, कुछ जमीन पर और कुछ जमीन से उठ कर मचान पर, बेलें चढ़ाकर । जिस परिवार को उसने प्रेरित किया, उसने पहले साल ज़बरदस्त मेहनत की और बड़ा मुनाफा कमाया। दूसरे साल भी परिवार के साथ वो काम करता रहा। और नतीजा फिर बढ़िया निकला।  तीसरे साल उसने सोचा के परिवार अब तो खुद ही मचान खेती कर लेगा। बरसात के आखिरी दिनों में मेरा दोस्त उस परिवार से मिलने गया। वहां जो उसने देखा, उससे वो भौंचक्का रह गया। उसने देखा की मचान खेती नदारद थी। उसकी जगह पारम्परिक खेती ले चुकी थी।  उसने घर के महिला से पूछा-  "काय दीदी, इस बार मचान नहीं लगाए ?" दीदी बोली - &qu

क्या भारत में कोई बच्ची ग्रेटा थन्बर्ग हो सकती है?

आपने ग्रेटा थन्बर्ग  का नाम सुना है? गार्जियन अखबार से साभार, no copyright infringement is intended स्वीडन की ये लड़की अभी  18 की भी पूरी नहीं हुयी है। पूरी दुनिया में मशहूर हो चुकी इस लड़की ने लाखों लोगों की भावनाओं को झकझोरा और किशोरों की एक बड़ी लड़ाई को जन्म दिया जो "स्कूल स्ट्राइक फॉर क्लाइमेट"  से जानी  जा रही है। इस आंदोलन ने यूरोप की  ग्रीन पार्टियों को वापस मुख्यधारा में ला दिया। यूरोप के कई देशों ने आंदोलन के दबाव में जलवायु परिवर्तन की  अपनी नीतियों में बड़े संशोधन किये। स्कूली बच्चों  और युवाओं का एक विश्वव्यापी आंदोलन ग्रेटा कैसे खड़ी कर पायी, इतनी कम उम्र में? ऐसी हिम्मत उसमें कहाँ से आयी? मैं कई दिनों से यही सोच रहा हूँ। 8 वर्ष की उम्र में ग्रेटा को जलवायु परिवर्तन के बारे में पता चला। और 15 वर्ष की उम्र तक उसके अंदर इस विषय को लेकर गहरी चिंता बैठ गयी। राजनीतिज्ञों की अकर्मण्यता और विशेषकर सयाने लोगों के दोगलापन उसकी बर्दाश्त के बाहर था। सबसे पहले उसने अपने माँ-बाप को मजबूर किया के वह अपनी आदतें बदलें। कई सालों तक बेटी के कठिन सवालों से जूझते रहने के बाद, ग