हिंदुस्तान टाइम्स से साभार आज बच्चों के साथ बैठा नेशनल जियोग्राफिक चैनल देख रहा था। भारत के पूर्वोत्तर के जंगलों पर सुन्दर वृत्तचित्र था वह।उत्तंग हिमालय से शुरू करके ब्रह्मपुत्र के विशाल फाट तक अचंभित कर देने वाले दृश्य। गोल्डन लंगूर, रेड पांडा, एशियाई काला भालू और न जाने क्या क्या। पर जैसे ही कहानी मनुष्य-जानवर द्वन्द पर उतरी, मुझे बड़ा दुःख हुआ। उसमें हाथियों के घटते रहवास को लेकर चिंता प्रकट की जा रही थी। कहा जा रहा था के पूर्वोत्तर में जनसँख्या और खेती के लिए जमीन का लालच बढ़ रहा है। और इस लालच से हमारे हाथियों के लिए रहवास कम रह गया है। क्या सच में किसानों का लालच हाथियों के घटते रहवास के लिए जिम्मेदार है? इस बात को इस तरह से पेश किया जाता है जैसे यह कोई ब्रह्म-वाक्य हो, के भैया ! यही सच है.. जान लेयो। और बाकी सब है मिथ्या। हमारी पहले से ही मूर्ख बनी मध्य-वर्गीय दुनिया को और मूर्ख बनाते रहने की साजिश है ये। मैं उत्तराखंड का रहने वाला हूँ। हमारे यहाँ भी जंगल थोक के भाव है। वहां भी यही घिसी पिटी कहानी कई दशकों से लोग सुनाये जा...
सम-सामायिक विषयों, पोस्ट डेवलपमेंट (उत्तर विकासवाद) और विकास के वैकल्पिक मार्गों की बात; जंगल के दावेदारों की कहानियां, कुछ कविताएं और कुछ अन्य कहानियाँ, व्यंग्य