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महिलाएं और साझे संसाधन

मंडला में किसान महिलाएं  क्या आप जानते हैं कि आखिर पितृसत्ता पैदा कहाँ से हुयी? महिला-पुरुष की भूमिका का बंटवारा कहाँ से शुरू हुआ? कई नारीवादी अब यह मानते हैं कि पितृसत्ता की जड़ "संपत्ति" या "मिल्कियत" के विचार में है, खास तौर पर निजी संपत्ति के विचार में। प्राकृतिक संसाधनों पर मनुष्य के अधिकार की सोच ने "विरासत" में संसाधनों को पाने के विचार को खाद पानी दिया। "मैं और मेरी संतान इस जमीन के मालिक होंगे, सदा सदा के लिए", इस विचार से ही महिला की प्रजनन करने की प्राकृतिक शक्ति को उसी की आज़ादी के खिलाफ इस्तेमाल करने का विचार पैदा हुआ। मानव जाति के अनुवांशिक विकास के दौरान घटे इस प्रागैतिहासिक अन्याय के कारण महिलाओं का मानव समाज में स्थान बच्चे पैदा करने की भूमिका तक ही सीमित हो गया। हालाँकि पुरुष जमीन के हर टुकड़े पर अपना राज कायम नहीं कर पाए। हज़ारों लाखों एकड़ जमीन और समुन्दर आज भी निजी मिलकियत नहीं हैं। किसी तरह से समाजों द्वारा साझा किये जाते रहे हैं। पितृसत्ता ने हालाँकि सत्ता के और विकसित रूप पैदा किये जैसे राज्य, धर्म, जाति, कारपोरे...

वन बहाली और लोकतंत्र: मेडागास्कर में समुदायों की भूमिका

अफ्रीका फारेस्ट रेस्टोरेशन इनिशिएटिव के फेसबुक पेज से साभार  पूरी दुनिया में लैंडस्केप रेस्टोरेशन या लैंडस्केप बहाली एक महत्वपूर्ण विषय बन चुका है। इसका अर्थ है एक क्षेत्र को अपनी प्राकृतिक स्थिति में वापस लाना। मूलतः पारिस्थितिकी तंत्र को वापस बहाल करना ही लैंडस्केप बहाली है। लैंडस्केप बहाली पूरी तरह से प्रभावी नहीं होगी जब तक कि यह सामाजिक और पारिस्थितिक, दोनों प्रकार के लाभ में योगदान न करे। हाल ही में घाना के अकरा में ग्लोबल लैंडस्केप्स फोरम में मेडागास्कर की जमीन पर हकों की नीति और लैंडस्केप बहाली कार्यक्रमों में उसके महत्व पर गहन चर्चा हुई। "बॉन चैलेंज" और संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित "इकोसिस्टम रिस्टोरेशन (बहाली) दशक" और "फैमिली फार्मिंग दशक" लैंडस्केप बहाली की दृष्टि से महत्वपूर्ण वैश्विक कदम हैं। ये कार्यक्रम यू.एन. एजेंसियों, प्रमुख दाता देशों, अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) और इन कार्यक्रमों में भाग लेने वाले देशों द्वारा बनाये , संगठित किये गए और वित्त पोषित किये गए हैं। बोन चैलेंज कार्यक्रम के तहत AFR 100 नामक 28 अफ़्री...

जामुन का पेड़

तस्वीर विकिपीडिया से साभार  thewire.in के हवाले से खबर आयी की सरकार ने कृष्णचंदर की 1960 में लिखी कहानी "जामुन का पेड़" को ICSE के दसवीं के पाठ्यक्रम से निकाल दिया है। चूँकि चंद नवीसांदो (अफसरों) को लगा की कहानी आजके निज़ाम पर भी एक व्यंग्य है। तो ज़ाहिर है, कहानी बहुत जरूरी है, और उसे बांटना सुनना और ज़रूरी है। खबर सच्ची है के नहीं, हमें एक-दो दिन में मालूम हो जायेगा। मैंने हिंदी में उनकी कहानी यहाँ नीचे दे दी है।कहानी पहले से ही thebetterindia.com पर मौजूद है। उसी से कॉपी की कहानी ही नीचे है। चाहे thebetterindia.com पर जाकर भी नीचे दिए लिंक से पढ़ सकते हैं। https://hindi.thebetterindia.com/9063/hindi-krishna-chander-jamun-ka-ped-story/  और यूट्यूब लिंक  भी शेयर किया है आप सबके लिए। कोई मयंक वैष्णव साहब हैं। अच्छा बोलते हैं। https://www.youtube.com/watch?v=CjQ9bLS-49E कृष्ण चन्दर जी का परिचय  कृ ष्ण चंदर हिन्दी और उर्दू के कहानीकार थे। उन्हें साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1961 में पद्‌म भूषण से सम्मानित किया गया था। उन्होने म...

क्या ग्लोबल हंगर इंडेक्स और जंगल का कोई कनेक्शन है?

हिंदी न्यूज़क्लिक से साभार  ताजा ताजा आयी "ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट" में भारत के दयनीय प्रदर्शन पर आजकल बहुत चर्चा हो रही है। हम 117 देशों की सूची में 102 वें स्थान पर हैं। ये तो जाहिर है के स्थिति ठीक नहीं है।  लिहाजा कुछ अखबारों के  पन्ने इस चर्चा में थोड़े बहुत काले हुए हैं।  एक और खबर साथ में थी जिसकी वजह से इस खबर का इकबाल और बुलंद हो गया । वह यह कि हमारे खाद्यान्न भंडार अब इतने  बड़े  हो गये  हैं  कि भारतीय खाद्य निगम यानि FCI  यह सिफारिश कर रहा है कि हमें अपना अनाज गरीब मुल्कों में निर्यात कर देना चाहिए। कम से कम कहीं तो गरीबों का पेट भरे। हमारे देश में न सही, अफ्रीका या अफ़ग़ानिस्तान में सही। ये चमत्कार भारत में ही हो सकता है कि एक तरफ भुखमरी है और दूसरी तरफ सड़ते हुए अनाज के गोदाम।  मन हुआ इस पर थोड़ी बात की जाए!! ग्लोबल हंगर इंडेक्स है क्या, पहले इसे  समझा जाए। फिर उसके बाद थोड़ी तफ्तीश की जाए की ये ससुरा कुपोषण होता क्यों है आखिर। जहाँ तक मुझे समझ आया है, ग्लोबल हंगर इंडेक्स भुखमरी स...

दो पुरानी कविताएं

सत्य (2-5-2005 ) सत्य न जाने कैसे कब इतना जटिल हो गया कि व्यक्त करने को कम पड़ गयीं भाषाएं अंकित करने को कम पड़ गए रंग न जाने कैसे कब जुबान पर रखा जलता कोयला हो गया सत्य। सन 2050 (26-12-2003) पिछले सौ-सवा सौ सालों में हमने जो तरक्की की उसके लिए आप जिम्मेदार हैं पर इस तरक्की के साथ जीना आप हमें नहीं सीखा पाए इसलिए हालाँकि आप इसके लायक तो नहीं पर फिर भी हम आप पर दया करते हैं

लैंटाना के डॉक्टर- (डॉ भरत सुंदरम के साथ बातचीत के कुछ अंश)

डॉ भरत सुंदरम  साथियों, डॉ भरत सुंदरम देश के गिने चुने इकोलॉजी विशेषज्ञों में से हैं जिन्होंने आक्रामक झाड़ियों (invasive shrubs ) पर गंभीर शोध किया है। पिछले लगभग 20 वर्षों से वह लैंटाना पर शोध कर रहे हैं। वर्तमान में वह krea University, चेन्नई में पढ़ाते हैं। उनके मंडला आगमन पर हमें उनसे बातचीत का सौभाग्य मिला। उनसे बातचीत के कुछ अंश यहाँ हम आपसे बाँट रहे हैं। यूँ तो इस बातचीत को हमने रिकॉर्ड किया था। पर वह इतनी लम्बी हो गयी के अब हम उसे पूरा आपके साथ नहीं बाँट पा रहे। इसके लिए हम आपसे  क्षमाप्रार्थी हैं। तो पेश हैं उनसे बातचीत के कुछ अंश मैं कबीर-  डॉ भरत हमें थोड़ा बताइये के आप की रूचि सोशल इकोलॉजिकल सिस्टम्स में कैसे आयी जबकि आपने अपना करियर तो  एक species विशेषज्ञ के रूप में शुरू किया था। आपने ये बदलाव अपने कॅरियर में क्यों लाया।  मैं शुरुआत में तो wildlife biology में पढाई करना चाहता था। बाद में पता लगा कि इकोलॉजी में ही वाइल्डलाइफ बायोलॉजी पढ़ सकते हैं। मुझे लगा कि इकोलॉजी पढ़ने से मेरा worldview बेहतर होगा।  तो पॉन्डिचेरी यूनिवर्सिट...

किसानों और जंगली जानवरों का लफड़ा क्या है

हिंदुस्तान टाइम्स से साभार   आज बच्चों के साथ बैठा नेशनल जियोग्राफिक चैनल देख रहा था।  भारत के पूर्वोत्तर के जंगलों पर सुन्दर वृत्तचित्र था वह।उत्तंग हिमालय से शुरू करके ब्रह्मपुत्र के विशाल फाट तक अचंभित कर देने वाले दृश्य। गोल्डन लंगूर, रेड पांडा, एशियाई काला भालू और न जाने क्या क्या।  पर जैसे ही कहानी मनुष्य-जानवर द्वन्द पर उतरी, मुझे बड़ा दुःख हुआ। उसमें हाथियों के घटते रहवास को लेकर चिंता प्रकट की जा रही थी।  कहा जा रहा था के पूर्वोत्तर में जनसँख्या और खेती के लिए जमीन का लालच बढ़ रहा है। और इस लालच से हमारे हाथियों के लिए रहवास कम रह गया है। क्या सच में किसानों का लालच हाथियों के घटते रहवास के लिए जिम्मेदार है? इस बात को इस तरह से पेश किया जाता है जैसे यह कोई ब्रह्म-वाक्य हो, के भैया ! यही सच है.. जान लेयो। और बाकी सब  है मिथ्या। हमारी पहले से ही मूर्ख बनी मध्य-वर्गीय दुनिया को और मूर्ख बनाते रहने की साजिश है ये। मैं उत्तराखंड का रहने वाला हूँ। हमारे यहाँ भी जंगल थोक के भाव है।  वहां भी यही घिसी पिटी कहानी कई दशकों से लोग सुनाये जा...

Rashtra Ka Naya Bodh | Harishankar Parsai | Hindi Satire

जबलपुर से 90 किलोमीटर दूर मंडला में रहते हुए परसाई जी को उनके जन्मदिन पर श्रद्धांजलि देने का ख्याल आया। सुनिए, 1968 में लिखा उनका व्यंग्य - "राष्ट्र का नया बोध" .. लेखकों की यही ख़ास बात है। सालों बाद भी उनकी बात उतनी ही सारगर्भित और विचार के लायक है जैसी उस वक़्त थी। और हमारा राष्ट्रबोध भी उतना ही खोखला है जितना पहले था। ज्यादा लिखने की आवश्यकता नहीं। कृपा करके सुनियेगा जरूर।

मुझे ऑटो सेक्टर की चिंता क्यों नहीं है?

द फिनांशियल एक्सप्रेस से साभार  कुछ निराश लोग ऑटो सेक्टर में आयी जबरदस्त मंदी से बेहद आहत हैं। उन्हें लगता है कि ये मंदी अर्थव्यवस्था में मंदी की तस्दीक करती है। पर पता नहीं क्यों, मेरा मन कहता है कि क्या फर्क पड़ता है। कारें कौन खरीदता है ? अभी भी मुल्क में एक बड़ी आबादी के पास साइकिल तक नहीं है। आबादी का अधिकतर हिस्सा बस या रेल के जनरल डिब्बे से ही  सफर करता है। ये लोग तो शायद ही कभी सफर कर पाएं, गाडी में। कई बार मैंने इन लोगों को भेड़-बकरी की तरह गाँव की शेयर्ड जीप में लदे देखा है। ये लोग कभी क्या गाडी खरीदेंगे। गाडी न खरीद पाना नव-धनाढ्य वर्ग या नए पैसे वालों की समस्या है। ऐसे लोग जब पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग करने लगेंगे तो सरकार अपने-आप बसें खरीदेगी। इनमें से बहुतों को तो अब बस में सफर करने की आदत ही नहीं बची है। क्या पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बेहतर बनाने की योजना सरकार को नहीं बनानी चाहिए? एक के बाद एक राज्य सरकारें अपने बस परिवहन विभागों का निजीकरण करती आ रही हैं। कमर टूट गयी है सरकारी परिवहन के ढाँचे की। राष्ट्रीय स्तर पर इस समस्या पर कोई ध्यान क्...

उत्तर-विकासवाद कड़ी-3: नीमखेड़ा की समस्या क्या है?- केस विश्लेषण

साथियों, पिछले रविवार, हमने जो केस आपसे साझा किया था, उसपर आप लोगों के कुछ जवाब प्राप्त हुए। उसमें से एक हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। और उसके बाद हम नीमखेड़ा की समस्या की हमारी समझ पेश करेंगे। ये कहना बिलकुल मुनासिब होगा के हमारी समझ कोई धर्मोपदेश नहीं है जोकि गलत नहीं हो सकती । इसलिए हम चाहेंगे के पाठक अपना विवेक इस्तेमाल करें। और अपनी सोच को और पैना करें। केस मेथॅड हमारी तार्किक शक्तियों को बेहतर करने और सन्दर्भ को समझने की हमारी क्षमता को बढ़ाने के लिए होता है। यहाँ सही जवाब कुछ नहीं होता, सिर्फ तर्क होता है। विशाल पंडित जी, ने हमें अपना उत्तर सुझाया है जोकि कुछ ऐसा है - प्रश्न 1 - क्या आप विश्लेषण करके बता सकते हैं के नीमखेड़ा और बाकी गाँव के बीच में तनातनी की असली वजह क्या है? समस्या यह है के पुराने गाँव नीमखेड़ा को अपने जंगल पर गलत तरीके से काबिज हुआ समझते हैं, बावजूद इसके कि नीमखेड़ा वालों को खुद सरकार वहां बसाई थी, वे खुद अपनी मर्ज़ी से नहीं गए थे। प्रश्न २- यदि आप धीरेश की जगह होते तो क्या करते? विस्तार से बताइये।  धीरेश को दोनों गाँव से बात करनी चाहिए।...